संघ और उसका राज्य क्षेत्र| संघ और उसका राज्य क्षेत्र in english: संविधान द्वारा विहित राजनीतिक संरचना परिसंघीय है। इस संघ का नाम भारत अर्थात् इंडिया है। अनुच्छेद 1(1), और वर्तमान में इस संघ के सदस्य 28 राज्य हैं। आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, तमिलनाड्ड, महाराष्ट्र, नागालैंड, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, सिक्किम, मिजोरम, अरूणाचल प्रदेश, गोवा, छत्तीसगढ़, उत्तरांचल और झारखंड। जम्मू-कश्मीर को छोड़कर जिसकी संविधान के अधीन विशेष स्थिति है संविधान के राज्यों से सम्बन्धित उपलबन्ध सभी राज्यों पर एक समान लागू होते हैं।
Note: जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा समाप्त कर दी है अब एक संघ शासित प्रदेश है जम्मू कश्मीर को दो भागो में विभाजित कर, लद्दाख और जम्मू कश्मीर में विभाजित कर दिया गया है
भारत का राज्यक्षेत्र
“भारत संघ” अभिव्यक्ति का अर्थ “भारत का राज्यक्षेत्र” से भिन्न है। संघ में केवल वे राज्य हैं जो परिसंघी या प्रणाली के सदस्य के रूप में हैं और शक्ति के वितरण में जो संघ के हिस्सेदार हैं, “भारत के राज्यक्षेत्र” के अन्तर्गत वह समस्त राज्यक्षेत्र हैं जिस पर तत्समय भारत की प्रभुता का विस्तार है।
इस प्रकार राज्यों के अतिरिक्त दो अन्य प्रकार के राज्यक्षेत्र हैं जो “भारत के राज्यक्षेत्र” में सम्मिलित हैं अर्थात्
(क) संघ राज्यक्षेत्र, और
(ख) ऐसे अन्य राज्यक्षेत्र जो भारत द्वारा अर्जित किए जाएं।
(ग) 1987 से संघ राज्यक्षेत्र संख्या में 9 हैं – दिल्ली, अंडमान और निकोबार द्वीप, लक्षद्वीप, दादरा और नागर हवेली, दमन और दीव, पांडिचेरी और चंडीगढ़, लद्दाख और जम्मू कश्मीर
पांडिचेरी संघ राज्यक्षेत्र के लिए संसद् ने अनुच्छेद 239क के अधीन पांडिचेरी (प्रशासन) अधिनियम, 1962 अधिनियमित करके विधान मंडल आदि के लिए उपबंध किया है। 1992 में संविधान का संशोधन करके दो नए अनुच्छेद अर्थात् 239कक और 239 कख अतः स्थापित किए गए जिनके द्वारा दिल्ली के लिए विधान सभा और मंत्रिमंडल का उपबंध किया गया। अनुच्छेद 239 कक द्वारा दिल्ली का नाम बदलकर दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र कर दिया गया। शेष संघ राज्यक्षेत्र, केन्द्र शासित प्रदेश हैं जिनका शासन राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त प्रशासक के माध्यम से राष्ट्रपति चलाते हैं। इनके सुशासन के लिए विनियम भी राष्ट्रपति बनाते हैं। (अनुच्छेद 239-240)।
कोई अन्य राज्यक्षेत्र जो किसी भी समय भारत द्वारा विधिक न्यागमत द्वारा, संधि, अध्यर्पण या विजय द्वारा अर्जित किया जाए, भारत के राज्यक्षेत्र के भागरूप होगा। इसे संसद् के विधान के अधीन रहते हुए भारत सरकार द्वारा प्रशासित किया जाएगा (अनुच्छेद 246(4)।
पांडिचेरी की फ्रांसीसी बस्ती (करायकल, माहे और यनाम सहित) जिसे 1954 में फ्रांसीसी सरकार ने भारत का अध्यर्पित किया था, 1962 तक “अर्जित राज्यक्षेत्र” के रूप में प्रशासित किया जा रहा था क्योंकि अध यर्पण की संधि को फ्रांसीसी संसद् ने अनुमोदित नहीं किया था। अनुमोदन के पश्चात् फ्रांसीसी बस्तियों का यह राज्यक्षेत्र दिसम्बर, 1962 में संघ राज्यक्षेत्र बन गया। भारत के संविधान में सिक्किम के एकीकरण से सम्बन्टि गत सांविधानिक घटनाएं बड़ी नाटकीय हैं।
सिक्किम, एक नया राज्य
जब भारत स्वतंत्र हुआ तब सिक्किम की जनता का एक भाग भारत के साथ विलय चाहता था किन्तु उस रियासत में राजा का शासन और उसकी सामरिक महत्व की स्थिति इसके मार्ग में बाधा थी। अतएव परमोच्चता की समाप्ति के पश्चात् सिक्किम और भारत सरकार के बीच एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए जिसके अनुसार भारत सरकार ने सिक्किम की प्रतिरक्षा, विदेश कार्य और संचार के बारे में उत्तरदायित्व लिया। सिक्किम में भारत सरकार का प्रतिनिधि एक राजनीतिक अधिकारी होता था जिसे भूटान का भी काम सौंपा जाता था। इस प्रकार सिक्किम भारत संघ द्वारा आरक्षित राज्य हो गया।
मई, 1974 में सिक्किम कांग्रेस ने राजा का शासन समाप्त करने का निर्णय किया और सिक्किम की विधान सभा ने सिक्किम शासन अधिनियम, 1974 पारित किया। इसका उद्देश्य सिक्किम से पूर्णतया उत्तरदायित्व शासन की उत्तरोत्तर प्राप्ति और भारत के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित करना था। इस अधिनियम ने सिक्किम सरकार को यह शक्ति दी कि वह भारत की राजनीतिक संस्थाओं में सिक्किम के लोगों के प्रतिनिधियों के भाग लेने के लिए कदम उठाए जिससे सिक्किम का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में तीव्र गति से विकास हो सके।
चोग्याल को बाध्य किया गया कि वह सिक्किम शासन अधिनियम को अनुमति दे। इस विधेयक के अधीन प्रभावी शक्ति सिक्किम की प्रतिनिधि विधान सभा के हाथों में चली गई और चोग्याल सांविधानिक अध्यक्ष बन गया। सिक्किम शासन अधिनियम के अधीन दी गई शक्तियों का प्रयोग करके सिक्किम विधान सभा ने एक संकल्प पारित करके भारत के राजनीतिक और आर्थिक संस्थाओं में सहयुक्त होने की और भारत के संसदीय तंत्र में सिक्किम के लोगों के प्रतिनिधित्व की इच्छा प्रकट की।
35वां संशोधन
इस संकल्प को प्रभावी करने के लिए तुरन्त ही संविधान (35वां संशोधन) अधिनियम, 1974 पारित किया गया। इस संशोधन अधिनियम के मुख्य उपबन्ध ये थे:
(1) सिक्किम भारत राज्यक्षेत्र का भाग नहीं होगा किन्त “सहयुक्त राज्य” होगा। इसे भारत संघ की संरचना में लाने के लिए संविधान में अनुच्छेद 2क और 10वीं अनुसूची अन्तःस्थापित की गई।
(2) सिक्किम दोनों सदनों को दो प्रतिनिधि भेजने का हकदार होगा जिनके अधिकार और विशेषाधिकार वही होंगे जो संसद के अन्य सदस्यों के हैं। इसका अपवाद यह होगा कि सिक्किम के प्रतिनिधि भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में मत देने के हकदार नहीं होंगे। वे भारत के संविधान के अधीन संसद् के सदस्यों के लिए विहित निरर्हताओं के अधीन होंगे।
(3) सिक्किम की प्रतिरक्षा, विदेश कार्य और समाज कल्याण भारत सरकार का उत्तरदायित्व होगा। सिक्किम के लोगों को भारत में उच्च शिक्षा की संस्थाओं में, अखिल भारतीय सेवा मे और राजनीतिक संस्थाओं में प्रवेश पाने का अधिकार होगा।
(4) सिक्किम सरकार के पास उन सभी विषयों पर अवशिष्ट शक्ति होगी जिनके बारे में भारत के संविधान की 10वीं अनुसूची में उपबन्ध नहीं किया गया हैं।
इसमें सन्देह नहीं कि 35वें संशोधन अधिनियम, 1974 ने भारत के संविधान की मूल स्कीम में कुछ नई बातें जोड़ दी। 1949 के संविधान के अधीन “सहयुक्त राज्य” के लिए कोई स्थान नहीं था। भारत, राज्यों, संघ राज्यक्षेत्रों और अर्जित राज्यक्षेत्रों का परिसंघ हैं ख्अनुच्छेद 1(3),। अनुच्छेद 2 द्वारा भारत की संसद् को नए राज्यों को संघ में प्रवेश देने की शक्ति दी गई थी। किन्तु संविधान (35वा संशोधन) अधिनियम द्वारा सिक्किम को भारत संघ के नए राज्य के रूप में प्रवेश नहीं दिया गया। उसे भारत से ‘सहयुक्त राज्यक्षेत्र बनाया गया जिसका भारत के राज्यक्षेत्र के भागरूप हुए बिना भारत की संसद में प्रतिनिधि होगा। भारत की परिसंघ प्रणाली में सहयुक्त राज्य की प्रास्थिति के निर्माण की आलोचना का अब कोई व्यावहारिक महत्व नही रह गया है क्योंकि इसके कुछ समय बाद ही सिक्किम को भारत संघ में भारत के संविधान की पहली अनुसूची के 22वें राज्य के रूप में प्रवेश दिया गया।
भारत की संसद् ने संविधान (36वां संशोधन) अधिनियम, 1975 पारित किया जिसे बाद में अनुच्छेद 368(2) के परन्तुक के अधीन अपेक्षित संख्या में राज्यों का अनुमोदन प्राप्त हुआ। 36वें संशोधन अधिनियम के अनुसार सिक्किम को भारत संघ में राज्य के रूप में प्रवेश दिया गया है। इस निमित्त पहली और चौथी अनुसूची का, अनुच्छेद 80 और 81 का संशोधन किया गया है और 26-4-1975 से भूतलक्षी प्रभाव से अनुच्छेद 2क और दसवीं अनुसूची का लोप किया गया। सिक्किम के प्रशासन के सम्बन्ध में कुछ विशेष व्यवस्था करने के लिए अनुच्छेद 371च अन्तःस्थापित किया गया।
नए राज्यों की रचना और सीमाओं में परिवर्तन
भारत का परिसंघ पारंपरिक परिसंघ प्रणाली से भिन्न है क्योंकि इसमें संघ की संसद् को यह शक्ति दी गई है कि वह इकाइयों के राज्यक्षेत्र या उनकी अखंडता में अर्थात् राज्यों में बिना उनकी सम्मति या सहमति के परिवर्तन कर दे। जहां परिसंघ प्रणाली स्वतंत्र राज्यों के बीच संविदा या करार का परिणाम है। वहां यह स्पष्ट है कि करार को उसके पक्षकारों की सम्मति के बिना बदला नहीं जा सकता। इसी कारण अमेरिकी परिसंघ को “अविनाशी राज्यों का अविनाशी संघ” कहा गया है। अमेरिका की राष्ट्रीय सरकार के लिए नए राज्यों की रचना करके या विद्यमान राज्यों की सीमाओं को उनके विधान मंडल की सम्मति के बिना परिवर्तित करके अमेरिका का मानचित्र सम्भव नहीं है। किन्तु भारत का परिसंघ स्वतंत्र राज्यों के बीच प्रसांविदा का परिणाम नहीं है इसलिए राज्यों के संविधान में लेखबद्ध प्रारम्भिक पुनर्गठन को बनाए रखने के लिए कोई विशेष कारण नहीं हैं। हमारे संविधान के निर्माताओं ने संघ की संसद् की सादी प्रक्रिया से राज्यों का पुनर्गठन करने के लिए शक्ति दी है। संक्षेप में यह है कि प्रभावित राज्य अपना मत अभिव्यक्त कर सकते हैं किन्तु वे संसद् की इच्छा का विरोध नहीं कर सकते।
राष्टीय सरकार को राज्यों के पुनर्गठन के लिए जो उदार शक्ति दी गई है उसका कारण यह है कि भारत शासन अधिनियम के अधीन प्रान्तों की बनावट ऐतिहासिक और राजनीतिक कारणों पर आधारित थी। उसका आधार लोगों का सामाजिक, सांस्कृतिक या भाषाई विभाजन नहीं था। प्राकृतिक लक्षणों के अनुसार इकाइयों के पुनर्गठन का प्रश्न संविधान बनाते समय उठाया गया था किन्तु उस समय इस विशाल कार्य को करने के लिए पर्याप्त समय नहीं था।
इससे संबंधित उपबन्ध संविधान के अनुच्छेद 3 और 4 में हैं। अनुच्छेद 3 इस प्रकार है: “संसद् विधि द्वारा –
(क) किसी राज्य में से उसका राज्यक्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को या राज्यों के भाग को मिलाकर अथवा किसी राज्यक्षेत्र को किसी राज्य के भाग के साथ मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकेगी।
(ख) किसी राज्य का क्षेत्र बढ़ा सकेगी;
(ग) किसी राज्य का क्षेत्र घटा सकेगी,
(घ) किसी राज्य की सीमाओं में परिवर्तन कर सकेगी;
(ड) किसी राज्य के नाम में परिवर्तन कर सकेगी।
परन्तु इस प्रयोजन के लिए कोई विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना और जहां विधेयक में अन्तर्विष्ट प्रस्थापना का प्रभाव राज्यों में से किसी के क्षेत्र, सीमाओं या नाम पर पड़ता है वहां जब तक उस राज्य के विधान मंडल द्वारा उस पर अपने विचार, ऐसी अवधि के भीतर जो निर्देश में विनिर्दिष्ट की जाए या ऐसी अतिरिक्त अवधि के भीतर जो राष्ट्रपति द्वारा अनुज्ञात की जाए, प्रकट किए जाने के लिए वह विध यक राष्ट्रपति द्वारा उसे निर्देशित नहीं कर दिया गया है और इस प्रकार विनिर्दिष्ट या अनुज्ञात अवधि समाप्त नहीं हो गई है, संसद् के किसी सदन में पुरःस्थापित नहीं किया जाएगा।”
अनुच्छेद 4 में यह उपबन्ध है कि ऐसी विधि में ऐसे अनुपूरक, अनुषंगी और पारिणामिक उपबन्ध भी होंगे जो उस विधि को प्रभावित करने के लिए आवश्यक हैं और उस विधि द्वारा संविधान की पहली और चौथी अनसची का संशोधन किया जा सकेगा। इसके लिए अनुच्छेद 368 द्वारा विहित संविधान के संशोधन के लिए विधि बनाने की विशेष प्रक्रिया नहीं अपनानी होगी। इस प्रकार यह अनुच्छेद यह दर्शाते हैं कि हमारा संविधान कितना लचीला है। सादे बहुमत से और सामान्य विधायी प्रक्रिया से संसद् नए राज्य बना सकती है या विद्यमान राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन आदि करके भारत के राजनैतिक मानचित्र को बदल सकती है। ऐसी विधि बनाने के लिए केवल यही शतें अधिकथित हैं – (क) इस प्रयोजन के लिए कोई विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना पुरःस्थापित नहीं किया जाएगा। (ख) राष्ट्रपति अपनी सिफारिश देने के पहले विधेयक को उस राज्य के विधान मंडल को निर्दिष्ट करेंगे जो विधेयक में प्रस्थापित परिवर्तनों से प्रभावित होगा। वह राज्य राष्ट्रपति द्वारा विनिर्दिष्ट अवधि के भीतर परिवर्तनों पर अपने विचार प्रकट करेगा किन्तु राष्ट्रपति विधान मंडल द्वारा प्रकट किए गए मत से आबाद्ध नहीं हैं।
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