भारतीय संविधान की संवैधानिक पृष्ठभूमि क्या है |

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भारतीय संविधान की संवैधानिक पृष्ठभूमि: भारतीय गणतंत्र का संविधान राजनैतिक क्रान्ति का परिणाम नहीं है। यह जनता के मान्य प्रतिनिधियों के निकाय के अनुसंधान और विचार-विमर्श के परिणामस्वरूप जन्मा है। इस निकाय ने प्रशासन की विद्यमान पद्धति में सुधार लाने का प्रयत्न किया अतएव संविधान को सही रूप से समझने के लिए सांविधानिक विकास पर दृष्टिपात करना अनिवार्य हो जाता है

संविधान की संवैधानिक पृष्ठभूमि

यहां पर हम भारतीय संविधान की संवैधानिक पृष्ठभूमि की व्याख्या करेंगे. 1949 का संविधान पिछली दो शताब्दियों की संवैधानिक दस्तावेजों केवल एक बात में भिन्नता रखता है। वह यह कि अन्य दस्तावेज साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा लादे गए थे किन्तु गणतंत्र संविधान लोगों ने प्रभुत्वसंपन्न संविधान सभा में समवेत अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से स्वयं बनाया। इससे इस नए विलेख की गरिमा और नैतिक मूल्य प्रकट होता है और इस बात का महत्व भी स्पष्ट हो जाता हैं कि क्यों पहले से विद्यमान प्रणाली में कुछ नए उपबन्ध जोड़े गए।

भारत शासन अधिनियम, 1858

हमारे वर्तमान प्रयोजनों के लिए हमें 1858 से पीछे जाने की आवश्यकता नहीं हैं। इस वर्ष ब्रिटिश सम्राट ने भारत की प्रभुसत्ता ईस्ट इंडिया कंपनी से लेकर अपने में निहित कर ली थी और ब्रिटिश पार्लियामेंट ने ब्रिटेन की सरकार द्वारा सीधे शासन चलाने के लिए भारत के शासन का पहला कानून बनाया था-भारत शासन अधिनियम, 1858 यह अधिनियम हमारे सर्वेक्षण का प्रारम्भिक स्थल है क्योंकि इसमें सम्राट के आत्यन्तिक नियंत्रण का सिद्धान्त प्रमुख था। संविधान के बनने तक, इस अधिनियम के पश्चात् का इतिहास सम्राट के नियंत्रण के धीरे-धीरे शिथिलीकरण का और उत्तरदायित्वपूर्ण सरकार के उत्क्रमण का इतिहास है।

1858 के अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं

(क) देश का प्रशासन न केवल ऐकिक था बल्कि कठोरता से केन्द्रीकृत भी था। राज्यक्षेत्र को प्रान्तों में बांटा गया था और प्रत्येक के शीर्ष पर एक गवर्नर या लेफिटनेंट गवर्नर था तथा उसकी सहायता के लिए कार्यकारी परिषद् थी। किन्तु ये प्रान्तीय सरकारें भारत सरकार के अभिकरण मात्र थीं। उन्हें प्रान्त के शासन से सम्बन्धित सभी मामलों में गवर्नर-जनरल के अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण के अधीन काम करना पड़ता था।

(ख) कृत्यों का कोई पृथक्करण नहीं था। भारत के शासन के लिए सभी प्राधिकार-सिविल और सैनिक, कार्यपालक और विधायी सपरिषद् गवर्नर-जनरल में निहित थे जो सेक्रेटरी आफ स्टेट के प्रति उत्तरदायी था।

(ग) भारत के प्रशासन पर सेक्रेटरी आफ स्टेट का आत्यन्तिक नियंत्रण था। इस अधिनियम द्वारा भारत के शासन या राजस्व से किसी भी प्रकार से सम्बन्धित सभी कार्यों. संक्रियाओं और बातों का अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण सेक्रेटरी आफ स्टेट में निहित किया गया था। ब्रिटिश पार्लियामेंट के प्रति अन्तिम रूप से उत्तरदायी रहते हुए वह अपने अभिकर्ता गवर्नर-जनरल के माध्यम से भारत का प्रशासन चलाता था। उसी का वाक्य अन्तिम होता था चाहे वह नीति के विषय में हो या अन्य ब्योरों के विषय में।

(घ) प्रशासन का सम्पूर्ण तंत्र अधिकार तंत्र था, जिसका भारत की जनता की राय से कोई लेना देना नहीं था।

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861 से लोक प्रतिनिधित्व के तत्त्व का चुटकीभर समावेश किया गया था। इसमें यह उपबन्ध किया गया था कि गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद् में, जो अभी तक अनन्य रूप से आधिकारियों से मिलकर बनती थी, उस समय जब परिषद् विधान परिषद् के रूप में विधायी कार्य करेगी, कुछ गैर सरकारी सदस्य भी सम्मिलित किए जाएंगे। यह विधान परिषद् किसी भी प्रकार से न तो लोक प्रतिनिधि थी और न ही इसमें विचार-विमर्श होता था। सदस्य नामनिर्दिष्ट किए जाते थे और उनका कार्य, गवर्नर-जनरल द्वारा उनके समक्ष रखे गए विधायी प्रस्तावों पर विचार करने तक ही सीमित था। वह प्राधिकारियों के प्रशासनिक कृत्यों या उनके आचरण की किसी भी रीति में आलोचना नहीं कर सकती थी। विधान के बारे में भी प्रभावी शक्तियां गवर्नर-जनरल के पास थी, जैसे

(क) कुछ विषयों के सम्बन्ध में विधेयक को पूर्वानुमोदन प्रदान करना जिसके बिना विधान परिषद् में उसे पुरःस्थापित नहीं किया जा सकता था,

(ख) जो विधेयक पारित किए गए उन्हें वीटो करना या सम्राट के विचार के लिए आरक्षित करना,

(ग) अध्यादेश द्वारा विधायन, अध्यादेश का प्राधिकार विधान परिषद् द्वारा बनाए गए अधिनियमों के समान था। 1861 के अधिनियम में इसी प्रकार के उपबन्ध प्रान्तों में विधान परिषदों के लिए भी थे। किन्तु इन प्रान्तीय परिषदों में कुछ मामलों की बाबत विधान प्रारम्भ करने के लिए भी गवर्नर-जनरल की पूर्व अनुमति आवश्यक थी

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भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892

भारतीय और प्रान्तीय विधान परिषदों के बारे में उल्लिखित स्थिति में दो सुधार भारतीय परिषद अधिनियम, 1892 द्वारा किए गए। एक तो यह कि-(क) भारतीय विधान परिषद् में शासकीय सदस्यों का बहुमत रखा गया किन्तु गैर-सरकारी सदस्य बंगाल चैम्बर आफ कामर्स और प्रान्तीय विधान परिषद् द्वारा नामनिर्देशित होने लगे। प्रान्तीय परिषदों के गैर-सरकारी सदस्य कुछ स्थानीय निकायों द्वारा नामनिर्दिष्ट किए जाने लगे। ये स्थानीय निकाय थे विश्वविद्यालय, जिला बोर्ड, नगरपालिका आदिः (ख) परिषदों को राजस्व और व्यय के वार्षिक कथन अर्थात् बजट पर विचार-विमर्श करने को और कार्यपालिका से प्रश्न पूछने की शक्ति दी गई।

भारतीय परिषद् अधिनियम 1909

मोर्ले-मिंटो के सुधार द्वारा प्रातिनिधिक और निर्वाचित तत्व का समावेश करने का पहला प्रयत्न किया गया। यह नामकरण तत्कालीन भारत के लिए सेक्रेटरी आफ स्टेट (लार्ड मोर्ले) और वाइसराय (लार्ड मिंटों) के नाम से हुआ। इस सुधार को भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 नाम से लागू किया गया।

प्रान्तीय विधान परिषद् सम्बन्धित परिवर्तन प्रगामी थे। इन परिषदों के आकार में वृद्धि की गई और उसमें कुछ निर्वाचित गैर-सरकारी सदस्य सम्मिलित किए गए जिससे शासकीय बहुमत समाप्त हो गया। केन्द्र की विध गान परिषद् में भी निर्वाचन का समावेश हुआ किन्तु शासकीय बहुमत बना रहा।

विधान परिषदों के विचार-विमर्श के कृत्यों में भी इस अधिनियम द्वारा वृद्धि हुई। इससे उन्हें यह अवसर दिया गया कि वे बजट या लोकहित के किसी विषय पर संकल्प प्रस्तावित करके प्रशासन की नीति पर प्रभाव डाल सकें। कुछ विनिर्दिष्ट विषय इसके बाहर थे जैसे सशस्त्र बल, विदेश कार्य और देशी रियासतें।

1909 के अधिनियम द्वारा जो निर्वाचन की पद्धति अपनाई गई उसमें एक बहुत बड़ा दोष था। इसमें पहली बार मुस्लिम समुदाय के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व का उपबन्ध किया गया था। इसी से पृथक्तावाद का बीजारोपण हुआ जिसकी परिणति इस देश के दुखद विभाजन में हुई। मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचक मंडल का विचार और राजनैतिक दल के रूप में मुस्लिम लीग की स्थापना एक ही समय में हुई (1906) ।

इसके पश्चात् भारत शासन अधिनियम, 1915 पारित किया गया। इसका उद्देश्य पूर्ववर्ती भारत शासन अधिनियमों को समेकित करना था जिससे कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका से सम्बन्धित भारत शासन के सभी विद्यमान उपबन्ध एक ही अधिनियम में प्राप्त हो जाएं।

भारत शासन अधिनियम 1919

भारत के सांविधानिक विकास में इसके बाद मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन का महत्वपूर्ण स्थान है। इसी कारण आगे चलकर भारत शासन अधिनियम, 1919 अधिनियमित किया गया। वास्तव में यह संशोधनकारी अधिनियम था किन्तु संशोधनों द्वारा विद्यमान पद्धति में अधिष्ठायी परिवर्तन किए गए।

मोर्ले-मिंटो सुधार से भारत के राष्ट्रवादियों की आकांक्षाओं की तुष्टि नहीं हो सकी क्योंकि यह उद्देश्य नहीं था कि इन सुधारों से देश में शासन की संसदीय पद्धति स्थापित की जाए और सभी प्रश्नों पर अन्तिम विनिश्चय कार्यपालिका के हाथ में था जो किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं थी।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जिसकी स्थापना 1885 में हुई थी अभी तक नरम लोगों के नियंत्रण में थी। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वह अधिक सक्रिय हो गई और उसने स्वराज्य का अभियान प्रारम्भ किया (जिसे ‘होम रूल’ आंदोलन कहा गया)। इस लोकप्रिय मांग के उत्तर में ब्रिटिश सरकार ने 20 अगस्त, 1917 को यह घोषणा की कि सरकार की नीति यह हैं-“कि प्रशासन को प्रत्येक शाखा में भारतीयों को अधिकाधि क सम्मिलित किया जाए और धीरे-धीरे स्वतंत्र संस्थाओं का विकास किया जाए जिससे ब्रिटिश साम्राज्य के अविभाज्य भाग के रूप में ब्रिटिश भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की जा सके।”

भारत के लिए तत्कालीन सेक्रेटरी आफ स्टेट (श्री इ.एस.मोंटेग्यू) और गवर्नर-जनरल (लार्ड चेम्सफोर्ड) को उक्त नीति के क्रियान्वयन के लिए प्रस्ताव बनाने का कार्य सौंपा गया और भारत शासन अधिनियम, 1919 में उनकी सिफारिशों को एक विधिक रूप प्रदान किया गया।

भारत शासन अधिनियम 1919 के अधिनियम के मुख्य लक्षण

(1) प्रान्तों में द्वैध शासन– प्रान्तों में उत्तरदायी सरकार को स्थापना का प्रयत्न किया गया। साथ ही इस बात का ध्यान रखा गया कि प्रान्तों के प्रशासन के लिए गवर्नर का (गवर्नर-जनरल के माध्यम से) उत्तरदायित्व कम न हों। इसके लिए द्वैध शासन या द्विणासन की पद्धति का सहारा लिया गया। प्रशासन के विषयों को (अधिनियम के अधीन नियमों द्वारा) दो प्रवर्गों में बांटा गया-केन्द्रीय और प्रान्तीय। केन्द्रीय विषय वे थे जो केन्द्रीय सरकार के नियंत्रण में अनन्य रूप से रखे गए। प्रान्तीय विषयों को दो भागों में बांटा गया-अन्तरित और आरक्षित।

प्रान्तों को सौंपे गए विषयों में से “अन्तरित विषयों” का प्रशासन गवर्नर द्वारा विधान परिषद् को उत्तरदायी मंत्रियों की सहायता से किया जाना था। विधान परिषद् में निर्वाचित सदस्यों का अनुपात बढ़ाकर 70 प्रतिशत कर दिया गया। इस प्रकार उत्तरदायी सरकार की नींव अन्तरित विषयों के संकीर्ण क्षेत्र में डाली गई।

दूसरी ओर, “आरक्षित विषयों” का प्रशासन गवर्नर और उसकी कार्यकारी परिषद् द्वारा किया जाना था। यह विधान मंडल के प्रति कोई उत्तरदायी नहीं था।

(2) प्रान्तों पर केन्द्रीय नियंत्रण का शिथिलीकरण– भारत शासन अधिनियम, 1919 के अधीन बनाए गए नियमों ने जिन्हें न्यागमन नियम कहा जाता था प्रशासन के विषयों का दो प्रवर्गों में विभाजन किया- केन्द्रीय और प्रान्तीय। स्थूल रूप से, अखिल भारतीय महत्व के विषयों को “केन्द्रीय” प्रवर्ग में रखा गया और प्राथमिक रूप से प्रान्तों के प्रशासन से समबन्धित विषयों को “प्रान्तीय” वर्गीकरण में रखा गया। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रान्तों पर पूर्ववर्ती केन्द्रीय नियंत्रण प्रशासनिक, विधायी और वित्तीय विषयों में शिथिल हो गया। राजस्व के स्रोतों का भी दो प्रवर्गों में विभाजन किया गया जिससे प्रान्त अपने द्वारा संगृहीत राजस्व की सहायता से अपना प्रशासन चला सके। इस प्रयोजन के लिए प्रान्तीय बजट को भारत सरकार के बजट से अलग किया गया औ प्रान्तीय विधान मंडल को यह शक्ति दी गई कि वह अपना बजट प्रस्तुत कर सके और प्रान्त के राजस्व के स्रोतों से संबंधित अपने कर उद्गृहीत कर सके।

प्रान्तों को शक्तियों के न्यागमन को परिसंघ में शक्ति का वितरण समझना भूल होगी। 1919 के अधिनियम के अधीन प्रान्तों को शक्ति केन्द्र से प्रत्यायोजित होती थी। केन्द्रीय विधान मंडल को सम्पूर्ण भारत के लिए किसी भी विषय सम्बन्धित विधान बनाने की शक्ति थी। केन्द्रीय विधान मंडल की इस परम शक्ति के अधीन रहते हुए विधान मंडल को “देश में उस प्रान्त को गठित करने वाले राज्यक्षेत्रों की शान्ति और सुशासन के लिए विधि बनाने की शक्ति दी गई”।

प्रान्तीय विधान पर गवर्नर-जनरल के नियंत्रण को बनाए रखने के लिए यह अधिकथित किया गया कि कोई भी प्रान्तीय विधेयक, चाहे उसे गवर्नर की अनुमति मिल गई हो तो भी, तब तक विधि नहीं बनेगा जब तक कि उसे गवर्नर-जनरल की अनुमति न मिल जाए। इसी उद्देश्य से गवर्नर को यह शक्ति दी गई कि वह, इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट विषयों से सम्बन्धित विधेयक को गवर्नर-जनरल के विचार के लिए आरक्षित कर सके।

(3) भारतीय विधान मंडल को और अधिक प्रातिनिधिक बनाया गया केन्द्र में उत्तरदायित्व को स्थान नहीं दिया गया। सपरिषद् गवर्नर-जनरल भारत के लिए सेक्रेटरी आफ स्टेट के माध्यम से ब्रिटिश संसद का उत्तरदायी बना रहा फिर भी भारतीय विधान मंडल को अपेक्षाकृत अधिक प्रातिनिधिक बनाया गया और पहली बार विधान मंडल द्विसदनीय किया गया। उच्चतर सदन जिसे राज्य परिषद् का नाम दिया गया 60 सदस्यों से मिलकर बनती थी जिनमें से 34 निर्वाचित थे। निचले सदन में जिसे विधान सभा का नाम दिया गया ।44 सदस्य थे, जिनमें से 104 निर्वाचित थे। दोनों सदनों की शक्तियां समान थीं किन्तु प्रदाय के लिए मतदान की शक्ति अनन्य रूप से विधान सभा को दी गई थी। निर्वाचक मंडल जाति और भाग के आधार पर बनाया गया था। इस प्रकार मोर्ले-मिंटो युक्ति को आगे बढ़ाया गया।

केन्द्रीय विधान मंडल की बाबत गवर्नर-जनरल की अध्यारोही शक्तियों को निम्नलिखित रूप में बनाए रखा गयाः (क) कुछ विषयों से सम्बन्धित विधेयकों को पुरःस्थापित करने के लिए उसकी पूर्व अनुमति आवश्यक थी; (ख) उसे भारतीय विधान मंडल द्वारा पारित किसी भी विधेयक को वीटो करने या सम्राट के विचार के लिए आरक्षित करने की शक्ति थी; (ग) उसे यह शक्ति थी कि विधान मंडल द्वारा नामंजूर किए गए या पारित न किए गए किसी विधेयक या अनुदान को प्रमाणित कर दें। ऐसे प्रमाणित करने पर उसका इस प्रकार प्रभाव होगा मानो विधान मंडल द्वारा पारित या प्रदत्त है: (घ) वह आपात की दशा में अध्यादेश बना सकता था जिनका अस्थायी अवधि के लिए विधि का बल होता था।

भारत शासन अधिनियम 1919 के अधिनियम की कमियां

(1) प्रान्तों को पर्याप्त शक्तियां प्रदान करने के बाद भी सरंचना ऐकिक और केन्द्रीकृत बनी रही। सपरिषद् गवर्नर-जनरल इस संपूर्ण सांविधानिक रचना का आधारस्तंभ था। सपरिषद् गवर्नर-जनरल के माध्यम से सेक्रेटरी आफ स्टेट और अन्तिम रूप से पार्लियामेंट भारत की शान्ति व्यवस्था और सुशासन का उत्तरदायितव निभाती थी। कोई विषय केन्द्रीय है या प्रान्तीय, यह निर्णय करने का प्राधिकार गवर्नर-जनरल को था न्यायालय को नहीं। प्रान्तीय विधान मंडल, गवर्नर-जनरल की पूर्व मंजूरी के बिना अनेकों विषयों से संबंधित विधेयकों पर विचार नहीं कर सकते थे।

(2) प्रान्तीय क्षेत्र में द्वैध शासन के कार्यकरण से सबसे अधिक असंतोष हुआ। गवर्नर को अध्यारोही वित्तीय शक्तियां थीं और विधान मंडल में शासकीय मत उसके नियंत्रण में थे इसलिए उनके मात्र यम से गवर्नर, मंत्रिमंडल की नीति को, बहुत बड़ी सीमा तक प्रभावित करता था। व्यवहार में शायद ही कोई महत्व का प्रश्न ऐसा उत्पन्न होता हो जो एक या अधिक आरक्षित विभागों को प्रभावित न करता हो। भारत के दृष्टिकोण से प्रणाली का मुख्य दोष धन पर नियंत्रण था। वित्त, आरक्षित विषय था और इसलिए कार्यकारी परिषद् के सदस्य के प्रभार में रखा जाता था मंत्री के नही। किसी भी मंत्री के लिए कोई भी प्रगतिशील काम करना धन के बिना संभव नहीं होता था और इसके साथ ही यह तथ्य भी था कि भारतीय सिविल सेवा के सदस्य जिनके माध्यम से मंत्रियों को अपनी नीतियां लागू करनी थीं, सेक्रेटरी आफ स्टेट द्वारा भर्ती किए जाते थे और उसी के प्रति उत्तरदायी रहते थे मंत्री के प्रति नहीं। इन सबके ऊपर गवर्नर की अध्यारोही शक्ति थी।

गवर्नर अन्तरित विषयों की बाबत भी सांविधानिक अध्यक्ष के रूप में काम नहीं करता था। प्रान्तीय विधान मंडलों के प्रति मंत्रियों के सामूहिक उत्तरदायित्व की कोई व्यवस्था नहीं थी। मंत्री व्यक्तिशः नियुक्त किए जाते थे, गवर्नर के सलाहकार के रूप में कार्य करते थे और वे कार्यकारी परिषद् के सदस्य से केवल इस बात में भिन्न थे कि वे गैर-सरकारी थे। गवर्नर को यह शक्ति थी कि वह मंत्रियों की सलाह के अनुसार कार्य करे या न करे। वह विधान मंडल द्वारा इंकार किए गए अनुदान को या उसके द्वारा नामंजूर किए गए विधेयक को प्रमाणित कर सकता था, यदि वह समझता था कि किसी आरक्षित विषय से सम्बन्धित उसके उत्तरदायित्व के सम्यक् निर्वहन के लिए यह आवश्यक है।

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