संविधान का निर्माण: संविधान सभा द्वारा संविधान की मांग की गई थी: महात्मा गांधी ने बहुत पहले 1922 में यह मांग की थी कि भारत का राजनैतिक भाग्य भारतीय स्वयं बनाएंगे ।
कानूनी आयोग और राउंड टेबल कांफ्रेंस की असफलता के कारण भारतवासियों को आकांक्षाओं की पुष्टि के लिए भारत शासन अधिनियम, 1935 अधिनियमित किया गया । इससे भारत के लोगों की इस मांग ने जोर पकड़ा कि वे बाहरी हस्तक्षेप के बिना संविधान बनाना चाहते हैं । इस मांग को कांग्रेस ने 1935 में प्रस्तुत किया । 1938 में पंडित नेहरू ने संविधान सभा की मांग को स्पष्ट रूप से रखी ।
साइमन आयोग (1928)
सुधार की लगातार मांग और असहयोग आन्दोलन से उत्पन्न स्थिति के कारण ब्रिटिश सरकार ने 1928 में एक कानूनी आयोग नियुक्त किया । इसकी नियुक्ति के बारे में भारत शासन अधिनियम, 1919 में उपबन्ध था (धारा 84 क) । इस आयोग को अधिनियम के कार्यकरण की जांच करके उस पर अपना प्रतिवेदन देना था । 1929 में ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की भारतीय राजनैतिक विकास का उद्देश्य डोमिनियन प्रास्थिति है । आयोग ने, जिसके अध्यक्ष सर जान साइमन थे, 1930 में अपना प्रतिवेदन दिया । इस प्रतिवेदन पर एक गोलमेज परिषद में विचार किया गया जिसमें ब्रिटिश सरकार के, ब्रिटिश भारत के और देशी रियासतों के शासकों के प्रतिनिधि थे (क्योंकि स्कीम में एक परिसंघ बनाकर देशी रियासतों को शेष भारत से जोड़ना था । इस सम्मेलन की परिणति पर तैयार किए गए एक श्वेत पत्र की ब्रिटिश पार्लियामेंट की एक संयुक्त प्रवर समिति द्वारा परीक्षा की गई और प्रवर समिति की सिफारिशों के अनुसार भारत शासन विधेयक का प्रारूप तैयार करके उसे कुछ संशोधनों के साथ भारत शासन अधिनियम, 1935 के रूप में पारित किया गया ।
सांप्रदायिक अधिनिर्णय (1932) एवं 1935 का अधिनियम
इस अधिनियम ने मुस्लिम और गैर मुस्लिम समुदायों के बीच सांप्रदायिक वैमनस्य को और अधिक बढ़ा दिया क्योंकि इसमें ब्रिटिश प्रधान मंत्री रामरामसे मैकडोनाल्ड द्वारा 4-8-1932 को दिए गए “सांप्रदायिक आधिनिर्णय” के आधार पर पृथक् निर्वाचन मंडलों की व्यवस्था की गई । इसका आधार यह बताया गया कि दो मुख्य संप्रदाय सहमत नहीं हो सके है । इसके आगे दोनों धार्मिक समुदायों के बीच करार को प्रत्येक राजनैतिक कदम के लिए पुरोभावी शर्त के रूप में बताया जाता रहा । 1935 के अधिनियम में मुसलमानों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व तो था ही, सिखों के लिए, यूरोपीय लोगों के लिए, ईसाइयों के लिए और एंग्लो इंडियन लोगों के लिए भी पृथक् प्रतिनिधित्व था । इसके कारण राष्ट्रीय एकता के निर्माण में गम्भीर बाधाएं उपस्थित हुई । मुसलमानों के पृथक् राज्य के लिए विभाजन हो जाने के बाद भी भावी संविधान के निर्माता इस कठिनाई को पार नहीं कर सके ।
1935 के अधिनियम द्वारा जिस शासन प्रणाली की व्यवस्था की गई थी, उसके मुख्य लक्षण निम्नलिखित थे:
(क) परिसंघ ओर प्रान्तीय स्वायत्त-इसके पहले के भारत शासन अधिनियमों में भारत सरकार ऐकिक थी किन्तु 1935 के अधिनियम में परिसंघ की स्थापना की गई जिसमें इकाइयां थी प्रान्त और देशी रियासतें । देशी रियासतों के लिए परिसंघ में सम्मिलित होने का विकल्प था । देशी रियासतों के शासकों ने अपनी सहमति नहीं दी थी इसलिए 1935 के अधिनियमों में जिस परिसंघ की व्यवस्था थी वह कभी नहीं बन सका ।
यद्यपि परिसंघ से सम्बन्धित भाग निष्प्रभावी रहे फिर भी प्रान्तीय स्वायत्त से सम्बन्धित भाग को भारत के लिए 1937 में प्रभावी किया गया । इस अधिनियम ने विधायी शक्तियों को प्रान्तीय और केन्द्रीय विधान मंडलों के बीच विभाजित किया । प्रांत उपने परिवेश में केन्द्रीय सरकार के प्रत्यायोजिती नही थे बल्कि प्रशासन की स्वतंत्र इकाइयों के रूप में थे । इस सीमा के भीतर भारत सरकार, प्रान्तीय सरकारों के परिप्रेक्ष में परिसंघ की भूमिका निभाने लगी, यद्यपि देशी रियासतों के न आने के कारण परिसंघ की स्कीम पूरी न हो सकी । गवर्नर, सम्राट की ओर से प्रान्त को कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग करता था । वह गवर्नर-जनरल के अधीन नहीं था । गवर्नर से यह अपेक्षा थी कि वह मंत्रियों की सलाह से काम करेगा और मंत्री विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी थे ।
किन्तु प्रान्तीय स्वतंत्रता के प्रारम्भ किए जाने पर भी 1935 के अधिनियम में केन्द्रीय सरकार का एक विशेष क्षेत्र में प्रान्तों पर नियंत्रण बना रहा । कुद विषयों में गवर्नर से “स्वविवेकानुसार” या “अपने स्वयं के विवेकानुसार” कार्य करने की अपेक्षा थी । ऐसे विषयों में गवर्नर, मंत्रिमंडल की सलाह के बिना कार्य करता था । ऐसे कार्य गवर्नर-जनरल के और उसके माध्यम से सेक्रेटरी आफ स्टेट के नियंत्रण और निदेश से होते थे ।
(ख) केन्द्र में द्वैध शासन – केन्द्र की कार्यपालिका शक्ति (सम्राट के निमित्त) गवर्नर-जनरल में निहित थी, जिसके कृत्यों को दो समूहों में बांटा गया था
(1) प्रतिरक्षा, विदेश कार्य, चर्च सम्बन्धी कार्य ओर जनजाति क्षेत्र का प्रशासन गवर्नर-जनरल को स्वविवेकानुसार और अपने द्वारा नियुक्त परामर्शदाताओं की सहायता से करना । था । ये परामर्शदाता विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी नही थे; (2) ऊपर आरक्षित विषयों से भिन्न विषयों के बारे में गवर्नर-जनरल को मंत्रीपरिषद् की सलाह से कार्य करना था मंत्रीपरिषद् विधान मंडल के उत्तरदायी था । किन्तु इस क्षेत्र में भी यदि उसका “विशेष उत्तरदायित्व” अन्तर्वलित होता था तो वह मंत्रीपरिषद् द्वारा दी गई सलाह के विरूद्ध कार्य कर सकता था । विशेष उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में वह गवर्नर-जनरल, सेक्रेटरी आफ स्टेट के नियंत्रण और निदेश के अधीन कार्य करता था ।
वस्तुतः 1935 के अधिनियम के अधीन न तो परामर्शदाता नियुक्त किए गए और न ही विधान मंडल के प्रति उत्तदायी मंत्रिपरिषद् । गवर्नर-जनरल को सलाह देने के लिए 1919 के अधिनियम द्वारा उपबन्धित पुरानी कार्यकारी परिषद् ही भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 तक गवर्नर-जनरल को सलाह देती रही ।
(ग) विधान मंडल केन्द्रीय विधान मंडल में दो सदन थे जो परिसंघ विधान सभा और राज्य परिषद् से मिलकर बनते थे ।
छह प्रान्तों में विधान मंडल द्विसदनीय थे जो विधान सभा और विधान परिषद् से मिलकर बनते थे, शेष प्रान्तों में विधान मंल में एक सदन था । केन्द्रीय और प्रान्तीय विधान मंडलों की शक्तियां कुछ मर्यादाओं के अधीन थी । यह नहीं कहा जा सकता था कि इनमें प्रभुत्वसंपन्न विधान मंडली के लक्षण विद्यमान थे । इस अधिनियम के अधीन निकाले गए ‘अनुदेश-विलेख में यह अपेक्षा की गई थी की बहुत से विषयों से सम्बन्धित विधेयक जैसे उच्चतम न्यायालय की शक्तियों को कम करने वाले या स्थायी व्यवस्था को प्रभावी करने वाले विधेयक जब गवर्नर-जनरल या गवर्नर की अनुमति के लिए प्रस्तुत किए जाएंगे तो वे, यथास्थिति, सम्राट या गवर्नर-जनरल के विचार के लिए आरक्षित रखे जाएंगे ।
(घ) केन्द्र और प्रान्तों के बीच विधायी शक्तियों का वितरण-यद्यपि देशी रियासतें परिसंघ में सम्मिलित नही हुई फिर भी भारत शासन अधिनियम, 1935 के परिसंघीय उपबन्ध केन्द्रीय सरकार और प्रान्तों के बीच वस्तुतः लागू किए गए ।
केन्द्र और प्रान्तों के बीच विधायी शक्तियों के विभाजन पर ही संविधान में संघ और राज्यों के बीच विभाजन आधारित है । यह भारत शासन अधिनियम, 1919 के अधीन बनाए गए नियमों के अधीन केन्द्र द्वारा प्रान्तों को प्रत्यायोजित शक्तियां मात्र नहीं थी । 1935 के संविधान अधिनियम में विधायी शक्तियों को केन्द्र और प्रान्तीय विधान मंडलों के बीच विभाजित किया गया और नीचे उल्लिखित उपबन्धों के अधीन रहते हुए किसी भी विधान मंडल को दूसरे की शक्तियों का अतिक्रमण करने का अधिकार नहीं था ।
इस अधिनियम में तीन प्रकार का विभाजन किया गया ।
(1) एक परिसंघ सूची थी जिस पर परिसंघ विधान मंडल को विधान बनाने की अनन्य शक्ति थी इस सूची में विदेश कार्य, करेंसी और मुद्रा, नौसेना, सेना और वायुसेना, जनगणना जैसे विषय थे ।
(2) विषयों की एक प्रान्तीय सूची थी जिस पर प्रान्तीय विधान मंडलों की अनन्य अधिकारिता थी । उदाहरण के लिए पुलिस, प्रान्तीय लोकसेवा और शिक्षा ।
(3) विषयों की एक समवर्ती सूची थी-जिस पर परिसंघ और प्रान्तीय विधान मंडल दोनों विधान बनाने के लिए सक्षम थे, उदाहरणार्थ, दंड विधि और प्रक्रिया, सिविल प्रक्रिया, विवाह और विवाह-विच्छेद, माध्यस्थम् ।. गवर्नर-जनरल द्वारा आपात की उद्घोषणा किए जाने पर परिसंघ विधान मंडल को प्रान्तीय सूची में प्रगणित विषयों की बाबत विधान बनाने की शक्ति थी । परिसंघ विधान मंडल प्रान्तीय विषयों की बाबत उस दिशा में भी विधान की रचना कर सकता था जब दो या अधिक विधान मंडल अपने सामान्य हित में ऐसा किए जाने की इच्छा प्रकट करते थे ।
समवर्ती क्षेत्र में विरोध की दशा में, परिसंघ विधि, की सीमा तक प्रान्त की विधि पर अभिभावी होती थी किन्तु यदि प्रान्तीय विधि को गवर्नर-जनरल के विचार के लिए आरक्षित किया गया था और गवर्नर-जनरल ने अपनी अनुमति दे दी थी तो प्रान्तीय विधि विरोध के होते हुए भी अभिभावी होती थी ।’
इस अधिनियम में अवशिष्ट विधायी शक्ति का आवंटन अद्वितीय था । वह न तो केन्द्रीय विधान मंडल में निहित था न प्रान्तीय विधान मंडल में । गवर्नर-जनरल को यह शक्ति दी गई थी का बह परिसंघ या प्रान्तीय विधान मंडल को किसी ऐसे विषय की बाबत विधि अधिनियमित करने के लिए प्राधिकृत करे जो विधायी सूची प्रगणित नहीं थी ।
यह ध्यान देने योग्य है कि साइमन आयोग ने 1929 में जो “डोमिनियन प्रास्थिति” देने का वचन दिया था वह भारत शासन अधिनियम, 1935 द्वारा प्रदत्त नहीं की गई ।
क्रिप्स मिशन (1942)
ब्रिटिश सरकार को द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भ हो जाने पर बाहरी परिस्थितियों के कारण उन्हें यह स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा कि भारतीय सांविधानिक समस्या का हल निकालना अति अवश्यक है । 1940 में , इंग्लैंड में बहुदलीय सरकार ने इस सिद्धान्त को स्वीकार किया कि भारत के लिए नया संविधान भारत के लोग हो बनाएंगे । मार्च, 1942 में जब जापान भारत के द्वार तक पहुंच गया, तब उन्होंने सर स्टेफर्ड क्रिप्स को , जो मंत्रिमंडल के थे, ब्रिटिश सर के प्रस्तावों की घोषणा के प्रारूप के साथ भेजा । ये प्रस्ताव (युद्ध को समाप्ति पर) अंगीकार किए जाने वाले थे यदि (कांग्रेस और मुस्लिम लीग) दो प्रमुख राजनीतिक दल उन्हें स्वीकार करने के लिए सहमत हो जाएं । मुख्य प्रस्ताव इस प्रकार थे:
- (क) भारत के संविधान की रचना भारत के लोगों द्वारा निर्वाचित संविधान सभा करेगी;
- (ख) संविधान भारत को डोमिनियन प्रास्थिति और ब्रिटिश राष्ट्रकुल में बराबर की भागीदारी देगा;
- (ग) सभी प्रान्तों और देशी रियासतों से मिलकर एक संघ बनेगा; किन्तु
- (घ) कोई प्रान्त (या देशी रियासत) जो संविधान को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो तत्समय विद्यमान अपनी सांविधानिक स्थिति बनाए रखने के लिए स्वतंत्र होगा और इस प्रकार सम्मिलित न होने वाले प्रान्तों से ब्रिटिश सरकार पृथक् सांविधानिक व्यवस्था कर सकेगी ।
- किन्तु दोनों राजनीतिक दल इन प्रस्तावों को स्वीकार करने के लिए सहमत नहीं हो सके । मुस्लिम लीग ने इस बात पर बल दिया,-
- (क) कि भारत को साम्प्रदायिक आधार पर दो स्वतंत्र राज्यों में विभाजित किया जाए और श्री जिन्ना द्वारा बताए गए कुछ प्रान्तों को मिलाकर एक स्वतंत्र मुस्लिम राज्य की स्थापना की जाए, जिसे पाकिस्तान कहा जाएगा ।
- (ख) एक संविधान सभा के स्थान पर दो संविधान सभाएं होनी चाहिए अर्थात् पाकिस्तान के निर्माण के लिए पृथक् संविधान सभा होगी ।
ब्रिटिश मंत्रिमडल का प्रतिनिधिमंडल
क्रिप्स के प्रस्तावों के अस्वीकार हो जाने के पश्चात् और कांग्रेस द्वारा “भारत छोड़ो” आन्दोलन प्रारम्भ करने के बाद दोनों दलों को एकमत करने के लिए बहुत से प्रयत्न किए गए जिनमें गवर्नर-जनरल, लार्ड बावल की प्रेरणा से किया गया शिमला सम्मेलन भी है । इन सबके असफल हो जाने पर ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने अपने तीन सदस्य दल एक और गम्भीर प्रयत्न करने के लिए भेजे । किन्तु यह प्रतिनिधिमंडल भी दोनो प्रमुख रानीतिक दलों के बीच सहमति लाने में असफल रहा । परिणामस्वरूप उसे अपने ही प्रस्ताव रखने पड़े जिनको भारत और इंग्लैंड में 16 मई 1946 को एक साथ घोषणा की गई ।
मंत्रिमंडलीय प्रतिनिधिमंडल के प्रस्तावों में भारत का संघ बनाने और उसका विभाजन करने के बीच समझौता लाने का प्रयत्न किया गया । मंत्रिमंडलीय प्रतिनिधिमंडल ने पृथक् संविधान सभा और मुसलमानों के लिए पृथक राज्य के दावे को स्पष्टतः नामंजूर कर दिया । जिस योजना की सिफारिश उन्होंने की उसमें मुस्लिम लीग के दावे को पीछे जो सिद्धान्त था उसको लगभग स्वीकार कर लिया गया । उस योजना के मुख्य लक्ष्य ये थे,
(क) एक भारत संघ होगा जो ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों से मिलकर बनेगा और जिसकी विदेश कार्य प्रतिरक्षा और संचार के विषयों पर अधिकारिता होगी । शेष सभी शक्तियां प्रान्तों और राज्यों में निहित होंगी ।
(ख) संच को एक कार्यपालिका और एक विधान मंडल होगा जो प्रान्तों और राज्यों के प्रतिनिधियों से गठित होगा । किन्तु जब विधान मंडल में कोई प्रमुख सांप्रदायिक प्रश्न उठेगा तो उसका विनिश्चय दोनों प्रमुख समुदायों के उपस्थित और मतदान करने वाले तथा सभी उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से किया जाएगा ।
प्रान्त इस बात के लिए स्वतंत्र होंगे कि वे कार्यपालिका और विधान मंडलों के गुट बना लें और प्रत्येक गुट उन प्रान्तीय विषयों को अवधारित करने के लिए सक्षम होगा जिन पर गुट संगठन की अधिकारिता होगी ।
संविधान का निर्माण कैसे हुआ
कैबिनट मिशन ने जा स्कीम अधिकथित की थी वह सिफारिश के रूप में थी । मिशन की यह धारणा थी कि दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच सहमति होकर उसे स्वीकार कर लिया जाएगा । किन्तु संविधान सभा के लिए निर्वाचन होने के पश्चात् एक विचित्र परिस्थिति उत्पन्न हो गई । मुस्लिम लीग ने निर्वाचन में भाग लिया और उसके प्रत्याशी चुने गए किन्तु इसी बीच कैबिनेट के “गुट सम्बन्धी खडों” के निर्वचन के बारे में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच मतभेद हो गए । ब्रिटिश सरकार ने इस प्रक्रम पर हस्तक्षेप किया और लंदन में नेताओं को यह बताया कि लीग का पक्ष सही है ।
इस प्रकार पहने पहन ब्रिटिश सरकार ने यह स्वीकार किया कि दो राज्य और दो संविधान सभाएं बन सकती है । इसका परिणाम यह हुआ कि 9 दिसंबर, 1946 को जब संविधान सभा पहली बार अधिविष्ट हुई तब मुस्लिम लीग के सदस्य उपस्थित नहीं हुए और संविधान सभा ने मुस्लिम लीग के सदस्यों के बिना कार्य प्राम्भ किया ।
संविधान का निर्माण कैसे हुआ 20 फरवरी, 1947 का ब्रिटिश सरकार का कथन
इसके बाद मुस्लिम लीग ने यह कहा कि भारत को संविधान सभा को विघटित किया जाना चाहिए क्योंकि उसमें भारत के सभी भागों के लोगों को पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं था दूसरी ओर, ब्रिटिश सरकार ने अपने 20 फरवरी, 1947 के कथन में यह घोषणा की,
(क) कि जून, 1948 को समाप्ति पर भारत पर ब्रिटिश शासन समाप्त हो जाएगा । इसके बाद ब्रिटेन भारतीयों के हाथ में सत्ता सौंप देगा,
(ख) यदि तब तक पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व करने वाली संविधान सभा कैबिनेट प्रतिनिधिमंडल के प्रस्तावों के अनुसार संविधान के निर्माण के काम में असफल रहती है तो,
“हिज मैजेस्टी की सरकार इस बात पर विचार करेगी कि किसे ब्रिटिश भारत में केन्द्रीय सरकार को शक्ति सौपी जाए और क्या ब्रिटिश भारत के लिए केन्द्रीय सरकार की सम्पूर्ण शक्ति सौंपी जाए या कुछ क्षेत्रों में विद्यमान प्रान्तीय सरकार को सौंपी जाए या किसी ऐसी रीति से सौंपी जाए जो सर्वाधिक युक्तियुक्त हो और भारत की जनता के सर्वोत्तम हित में हो ।”
इसका परिणाम वही हुआ जो होना था और लीग ने संविधान सभा में संयुक्त होना आवश्यक नहीं समझा और “मुस्लिम भारत” के लिए संविधान सभा की मांग पर बल देती रही ।
इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने लार्ड वावेल के स्थान पर लार्ड माउंटबेटन को भारत के गवर्नर-जनरल के रूप में भेजा जिससे शक्ति के अन्तरण की तैयारियां शीघ्र हो सकें । इस शक्ति अन्तरण के लिए एक कठोर समय सीमा तय कर दी गई थी । लार्ड माउंटबेटन ने कांग्रेस और लीग में यह स्पष्ट समझौता कराया कि पंजाब और बंगाल के समस्या वाले प्रान्तों का विभाजन किया जाएगा जिससे कि इन प्रान्तों में हिन्दू और मुस्लिम बहुमत वाले खंड बनाए जाएंगे । तब लीग को अपना पाकिस्तान मिल जाएगा जिसे कैबिनेट मिशन ने ठुकरा दिया था-जिसमें असम, पूर्वी पंजाब और पश्चिमी बंगाल नही होगा । कांग्रेस जो मुसलमानों को छोड़कर भारत के सभी लोगों की प्रतिनिधि थी उसे वह शेष भारत मिलेगा जहां मुस्लिम अल्पमत में थे ।
संविधान का निर्माण ब्रिटिश सरकार का 3 जून, 1947 का कथन
पंजाब और बंगाल इन दोनों प्रान्तों के विभाजन का वास्तविक निर्णय इन दोनों प्रान्तों की विधान सभाओं के सदस्यों के मत पर छोड़ दिया गया । ये विधान सभाएं दो भागों में अधिविष्ट होंगी । इस योजना को माउंटबेटन योजना नाम दिया गया । इसे ब्रिटिश सरकार ने 3-6-1947 को अपने कथन द्वारा एक औपचारिक रूप प्रदान किया । इसमें अन्य बातों के साथ-साथ यह उपबन्ध था कि,
“बंगाल और पंजाब की प्रान्तीय विधान सभाओं को (यूरोपीय सदस्यों का अपवर्जित करते हुए) यह कहा कि. वे दो भागों में अधिविष्ट हो । एक भाग में मुस्लिम बहुमत वाले जिलो के प्रतिनिधि होंगे और दूसरे भाग में शेष प्रान्त के । दोनों भागों के सदस्य पृथक् रूप से बैठकर इस बात के लिए मतदान देंगे कि क्या उस प्रान्त का विभाजन किया जाए । यदि दोनों भागों में सादे बहुमत से विभाजन के पक्ष में निर्णय होता है तो विभाजन होगा और तदनुसार प्रबन्ध किए जाएंगे । यदि विभाजन का निर्णय होता है तो प्रत्येक विधान सभा का वह भाग उन क्षेत्रों के बारे में जिनका वह प्रतिनिधित्व करता है यह निर्णय करेगा कि वह विद्यमान संविधान सभा में सम्मिलित होगा या पृथक् संविधान सभा में ।”
यह प्रस्ताव भी किया गया कि पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में और सिलहट के मुस्लिम बहुमत वाले जिले में जनमत संग्रह किया जाएगा कि वे भारत में सम्मिलित होना चाहते है या पाकिस्तान में । इस कथन में यह घोषणा भी की गई कि सम्राट का यह आशय है कि चालू सत्र के दौरान इस वर्ष डोमिनियन प्रास्थिति के आधार पर एक या दो उत्तरवर्ती प्राधिकारियों को, घोषणा के परिणामस्वरूपम किए गए विनिश्चयों के अनुसार, शक्ति का अन्तरण करने के लिए विधान पुरःस्थापित किया जाए ।
उपर्युक्त योजना के अनुसार मतदान का परिणाम पहले से मालूम था । दोनों प्रान्तों (पश्चिमी बंगाल और पूर्वी बंगाल) के मुस्लिम बहुमत वाले क्षेत्रों के प्रतिनिधियों विभाजन और नई संविधान सभा में सम्मिलित होने के पक्ष में मतदान किया । पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त और सिलहट में जनमत पाकिस्तान के पक्ष में पाया गया ।
26 जूलाई, 1947 को गवर्नर-जनरल ने पाकिस्तान के लिए पृथक् संविधान सभा की स्थापना की घोषणा की । 3 जून, 1947 की योजना के क्रियान्वित हो जाने पर उस घोषणा के अनुसार ब्रिटिश पार्लमेंट द्वारा अधिनियम बनाकर शक्ति का अन्तरण करने में अब कोई कठिनाई नहीं थी ।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 का अधिनियमन जिन परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हुआ उन्हें इसके बाद के अध्याय में स्पष्ट किया जाएगा । किन्तु संविधान सभा द्वारा स्वतंत्र भारत के लिए संविधान बनाए जाने के पहले तक इस अधिनियम से शासन की संरचना में जो परिवर्तन किए गए उन्हें वर्तमान संदर्भ में बताना उचित होगा जिससे कि संविधान की भूमिका का सही और विस्तृत ज्ञान हो सके ।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के अनुसरण में भारत शासन अधिनियम, 1935 का भारत और पाकिस्तान में, अनुकूलन आदेशों द्वारा संशोधन किया गया जिससे दोनों डोमिनियनों में संविधान सभा द्वारा भावी संविधान का निर्माण पूरा हो जाने तक अंतरिम संविधान की व्यवस्था हो सके ।
इन अनुकूलनों के निम्नलिखित मुख्य परिणाम थे:
(क) ब्रिटिश पार्लियामेंट की प्रभुता और उत्तरदायित्व का उत्सादन भारत शासन अधिनियम, 1858 द्वारा भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी से सम्राट को अन्तरित कर दिया गया था । इस अधिनियम द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट भारत की प्रत्यक्ष संरक्षक बन गई और भारत के प्रशासन के लिए सेक्रेटरी आफ स्टेट के पद का सृजन किया गया । भारत के मामलों के लिए सेक्रेटरी आफ स्टेट संसद् के प्रति उत्तरदायी था । यह नियंत्रण धीरे-धीरे शिथिल होता गया फिर भी भारत का गवर्नर-जनरल और प्रान्तो के गवर्नर भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 तक सेक्रेटरी आफ स्टेट के सीधे नियंत्रण के अधीन बने रहे जिससे कि,
- “संविधान के सिद्धांत रूप में भारत की सरकार हिज मैजेस्टी की सरकार के अधीनस्थ सरकार थी ।”
- भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम ने इस सांविधानिक स्थिति में आमूल परिवर्तन कर दिया । उसने यह घोषित किया कि 15 अगस्त, 1947 से (जिसे “नियत दिन” कहा गया) भारत अधीनस्थ राज्य नही रहा और देशी रियासतों पर ब्रिटिश सम्राट की प्रभुता तथा जनजाति क्षेत्रों से उनके संधि संबंध उसी दिन से समाप्त हो गए ।
- ब्रिटिश सरकार और पार्लियामेंट का भारत के प्रशासन के लिए उत्तरदायित्व समाप्त हो जाने के कारण भारत के लिए सेक्रेटरी आफ स्टेट का पद भी समाप्त कर दिया गया ।
(ख) सम्राट प्राधिकार का स्रोत नही रहा जब तक भारत ब्रिटिश सम्राट का अधीनस्थ राज्य था तब तक भारत का शासन हिज मैजेस्टी ‘के नाम से चलाया जाता था । 1935 के अधिनियम के अधीन परिसंघ स्कीम बनने के कारण सम्राट को और भी प्रमुखता मिली । परिसंघ की सभी इकाइयां प्रान्त और केन्द्र, अपना प्राधिकार सीधे सम्राट से प्राप्त करते थे । किन्तु स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के अधीन भारत और पाकिस्तान को डोमिनियनों में से कोई भी ब्रिटिश द्वीप समूह से प्राधिकार नहीं लेती थी ।
(ग) गवर्नर-जनरल और प्रान्तीय गवर्नरों का सांविधानिक अध्यक्ष के रूप में कार्य करना-दोनों डोमिनियनों को गवर्नर-जनरल दोनों नई डोमिनियनों के सांविधानिक अध्यक्ष हो गए । यह” डोमिनियन प्रास्थिति “की अवश्यंभावी परिणति थी । यह प्रास्थिति भारत शासन अधिनियम, 1935 द्वारा नहीं दी गई थी किन्तु भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 द्वारा प्रदान की गई ।
स्वतंत्रता अधिनियम अधीन किए गए अनुकूलनों के अनुसार 1919 के अधिनियम के अधीन बनाई गई कार्यकारी परिषद् या 1935 के अधिनियम में उपबन्धित’ परामर्शशदाता ‘समाप्त हो गए । गवर्नर-जनरल और प्रान्तीय गवर्नर मंत्रीपरिषद् की सलाह पर कार्य करने लगे । मंत्रीपरिषद् को डोमिनियन विधान मंडल या प्रान्तीय विधान मंडल का विश्वास होना आवश्यक था । भारत शासन अधिनियम, 1935 से” स्वविवेकानुसार “,” अपने विवेकानुसार कार्य करते हुए “और” अपने स्वयं के विवेक से “शब्द जहां-जहां आते थे वहां से निकाल दिए गए । इसका परिणाम यह हुआ कि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा था जिसमें सांविधानिक अध्यक्ष मंत्रियों की सलाह के बिना या उनकी इच्छा के विरूद्ध कार्य कर सके । इसी प्रकार गवर्नर-जनरल की उस शक्ति का भी विलोप कर दिया गया जिसके अनुसार वह गवर्नरों से यह अपेक्षा कर सकता था कि वे उसके अभिकर्ता के रूप में कार्य करें ।
गवर्नर-जनरल और गवर्नरों के विधान बनाने की साधारण शक्तियां भी नष्ट हो गई । वे अब विधान मंडल की प्रतियोगिता में अधिनियम नही पारित कर सकते थे और न ही सामान्य विधायी प्रयोजनों के लिए उद्घोषणाए और अध्यादेश निकाल सकते थे । उनकी प्रमाणित करने की शक्ति भी समाप्त कर दी गई । प्रान्तीय संविधान को निलम्बित करने की गवर्नर की शक्ति भी ले ली गई । सम्राट का वीटो का अधिकार चला गया और अब गवर्नर-जनरल किसी विधेयक को सम्राट की अनुमति के लिए आरक्षित नही कर सकता था ।
(घ) डोमिनियन विधान मंडल की प्रभुता-14-8-1947 को भारत का केन्द्रीय विधान मंडल, जो विधान सभा और राज्य परिषद् से मिलकर बना था, विघटित हो गया ।“ नियत दिन “से और जब तक दोनों डोमिनियनों की संविधान सभाएं नए संविधानों की रचना न कर लें और उनके अधीन नए विधान मंडल गठित न हो जाएं तब तक संविधान सभा को ही अपने डोमिनियन के केन्द्रीय विधान मंडल के रूप में कार्य करना था । दूसरे शब्दों में, दोनों डोमिनियनों की संविधान को सभाओं को (जब तक कि वह स्वयं अन्यथा इच्छा प्रकट न करें) दोहरा काम करना था सांविधानिक और विधायी ।
- डोमिनियन विधान मंडल को प्रभुता सम्पूर्ण थी और किसी भी मामले में विधान बनाने के लिए अब गवर्नर-जनरल की मंजूरी की आवश्यकता नही थी तथा ब्रिटिश साम्राज्य की किसी विधि के उल्लंघन के कारण कोई विरोध भी नही हो सकता था ।
- भारत की संविधान सभा जो संविधान सभा अविभाजित भारत के लिए निर्वाचित की गई थी और जिसकी पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को हुई थी, वही भारत डोमिनियन की प्रभुत्वसंपन्न संविधान सभा के रूप में 14 अगस्त, 1947 को पुनः समवेत हुई ।
- इसके गठन के बारे में यह स्मरणीय है कि यह कैबिनेट प्रतिनिधिमंडल द्वारा सिफारिश की गई योजना के अनुसार प्रान्तीय विधान सभाओं के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन से निर्वाचित हुई थी ।
इस योजना की प्रमुख बातें निम्नलिखित थीः
(1) प्रत्येक प्रान्त को और प्रत्येक देशी रियासत या रियासतों के समूह को अपनी जनसंख्या के अनुपात में कुल स्थान आवंटित किए गए थे । स्थूल रूप से 10 लाख के लिए एक स्थान का अनुपात था । इसके परिणामस्वरूप प्रान्तों को 292 सदस्य निर्वाचित करने थे और देशी रियासतों को कम से कम 93 स्थान दिए गए ।
(2) प्रत्येक प्रान्त के स्थानों को तीन प्रमुख समुदायों में जनसंख्या के अनुपात में बांटा गया । ये संप्रदाय थे मुस्लिम, सिख और साधारण ।
(3) प्रान्तीय विधान सभा में प्रत्येक समुदाय के सदस्यों ने एकल संक्रमणीय मत से आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार अपने प्रतिनिधियों का निर्वाचन किया ।
(4) देशी रियासतों के प्रतिनिधियों के चयन को पद्धति परामर्श से तय की जानी थी ।
3 जून, 1947 की योजना के अधीन विभाजन के परिणामस्वरूप पाकिस्तान के लिए एक पृथक् संविधान सभा गठित की गई । बंगाल, पंजाब, सिंध, पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त, बलोचिस्तान और असम के सिलहट जिले (जो जनमत संग्रह द्वारा पाकिस्तान में सम्मिलित हुए थे) के प्रतिनिधि भारत की संविधान सभा के सदस्य नहीं रहे । पश्चिमी बंगाल और पूर्वी पंजाब के प्रान्तों में नए निर्वाचन किए गए । परिणामस्वरूप जब संविधान सभा 31 अक्तूबर, 1947 को पुनः समवेत हुई तो सदन की सदस्यता घटकर 299 हो गई । इनमें से 284 सदस्य, 26 नवंबर, 1949 को उपस्थित थे और उन्होंने अन्तिम रूप से पारित संविधान पर अपने हस्तक्षर किए ।
प्रस्तावित संविधान के प्रमुख सिद्धान्तों की रूपरेखा सभा की विभिन्न समितियों ने तैयार की थी । उदारहरणार्थ संघ संविधान समिति, संघ शक्ति समिति, मूल अधिकार समिति आदि । इन समितियों के प्रतिवेदनों पर साधारणतः विचार-विमर्श करते हुए सभा ने 29 अगस्त, 1947 को एक प्रारूप समिति की स्थापना की । इस प्रारूप समिति ने जिसके अध्यक्ष डा. अम्बेडकर थे, सभा के विनिश्चयों को और उसके साथ आनुकल्पिक और अतिरिक्त प्रस्तावों को सम्मिलित करते हुए भारत के संविधान का प्रारूप प्रस्तुत किया । इसे फरवरी, 1948 में प्रकाशित किया गया । प्रारूप के उपबन्धों पर खंडवार विचार करने के लिए संविधान सभा की बैठक इसके बाद नवंबर, 1948 में हुई । अनेकों सत्रों के बाद खंडों पर विचार करने की प्रक्रिया 17 अक्तूबर, 1949 को पूरी हुई ।
संविधान सभा की बैठक तृतीय वाचन के लिए 14 नवंबर, 1949 को हुई और यह वाचन 26 नवंबर, 1949 को समाप्त हुआ । इसी तारीख को संविधान पर सभा के सभापति के हस्ताक्षर हुए और उसे पारित ‘घोषित किया गया । नागरिकता, निर्वाचन और अन्तरिम संसद् से सम्बन्धित उपबन्धों को तथा अस्थायी और संक्रमणकारी उपबन्धों को तुरन्त प्रभावी किया. गया अर्थात् वे 26 नवंबर, 1949 को लागू किए गए । शेष संविधान 26 जनवरी, 1950 को प्रवृत्त हुआ और इस तारीख को संविधान में उसके प्रारम्भ की तारीख कहा गया ।
राज्य पुनर्गठन से उत्पन्न समस्याएँ
भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन से अनेक समस्याएँ पैदा हो गयी जिनमें निम्न कुछ प्रमुख हैं: 1. क्षेत्रीयता की भावना विकसित करने के कारण भाषायी राज्य राष्ट्रीय एकता के लिये एक खास किस्म का खतरा पैदा कर देते हैं । वे राज्यों के बीच आर्थिक सहयोग को अवरूद्ध करते हैं और पड़ोसी राज्यों के प्रति विरोधी भावनाओं को बढ़ावा देते हैं । संसाधनों को बांटने की बजाय’ अपने संसाधनों का स्व-उपभोग करने की प्रबल भावना विकसित हो जाती है । 2. पुनर्गठन ने क्षेत्रीय, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और भाषायी आधारों पर जो जोर दिया है उससे राष्ट्रीय एकता की भावना खासी कमजोर पड़ी. है । बम्बई को मुम्बई और मद्रास राज्य को तमिलनाडु और हाल में मद्रास नगर को चेन्नई, एवं कलकत्ता को कोलकाता का नामकरण इसी स्थानीयता का उदाहरण हैं । 3. भाषायी राज्यों के गठन ने योजनाबद्ध आर्थिक विकास की गति काफी धीमी कर दी है क्योंकि राज्य-विशेष की स्थानीय भावना राज्य के संसाधनों का दूसरे राज्यों के लाभ हेतु उपयोग पर अक्सर आपत्ति करती है । सिविल सेवाओं को छोड़कर अंतर-राजकीय रोजगार संभावनाओं में अपेक्षानुकूल वृद्धि नहीं हुई है क्योंकि राज्य भाषायी सिद्धांतों पर पुनर्गठित हैं ।
निष्कर्ष
भारत को भाषायी आधार पर बांटने का निर्णय सांस्कृतिक दृष्टि से तो सही था क्योंकि अधिकांश मामलों में सांस्कृतिक क्षेत्र भौगोलिक विभाजनों से मेल खाते हैं, भाषायी राज्यों ने क्षेत्रीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार में सहयोग किया है और इस प्रकार बहुतेरे राज्यों की खास पहचान विकसित हुई है । तथापि, यह विभाजन आर्थिक और भौगोलिक दृष्टि से सही नहीं है क्योंकि यह समस्याएँ हल करने की बजाए, समस्याएँ पैदा करता है ।
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