पुरापाषाण काल

मानव विकास का अध्ययन त्रियुग पद्धति के आधार पर किया जाता रहा है। यह तीन लोग थे प्रस्तर युग, ताम्र पाषाण काल और लोहा युग। फिर आगे प्रस्तर युग को भी दो भागों में बांट दिया गया पुरापाषाण काल, नवपाषाण काल. इसके पश्चात पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल के बीच की संक्रमण की अवस्था को मध्य पाषाण काल के चरण के रूप में भी स्वीकार किया गया है। प्राणी समूह की उपस्थिति तथा तकनीकी परिवर्तन के आधार पर पुरापाषाण काल को तीन उप चरणों में विभाजित किया गया है यह निम्न प्रकार है। 

  • निम्न पुरापाषाण काल
  • मध्य पुरापाषाण काल
  • उच्च पुरापाषाण काल

निम्न पुरापाषाण काल मानव विकास के आरंभिक दशा को दर्शाता है। वस्तुतः भू वैज्ञानिक दृष्टि से संपूर्ण पुरापाषाण काल प्लीस्टोसीन युग से संबंधित है, किंतु उनमें भी निम्न पुरापाषाण काल का स्वरूप अति दीर्घकालीन रहा है। यह लगभग 5000 ईसवी पूर्व से आरंभ होकर 50 हजार ईसवी पूर्व तक कायम रहा था।

इस काल में मानव के द्वारा उपकरण बनाने के जाते रहे है। इस काल के उपकरण में हस्त कुठार खंडक और विदारण ही जैसे उपकरणों की प्रधानता रही है। अगर हम क्षेत्रीय विभिन्न नेताओं पर दृष्टिपात करते हैं तो अफगानिस्तान की सोनी घाटी में एक अलग प्रकार की संस्कृति दिखती है। जिसे हम चापर चॉपिंग  संस्कृति के नाम से भी जानते हैं, वहीं दक्षिण भारत में मद्रास तथा उसके आसपास हस्त कोठार संस्कृति का विकास हुआ. 

इस काल में बड़े कोर उपकरण बनते रहे तथा उनके निर्माण में कच्चे माल के रूप में  क्वार्टरजेट पत्थर का उपयोग हुआ। निम्न पुरापाषाण काल के स्थल लगभग संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप से प्राप्त हुए हैं किंतु यह स्थल गंगा यमुना दोआब, केरल एवं पूर्वी भारत के घने जंगलों से प्राप्त नहीं हुए है। गंगा यमुना दुआ में एक ही स्थल अपवाद है वह है कालपी।

सामुदायिक दृष्टि से पुरापाषाण काल एक बैंड सोसाइटी की उपस्थिति को  रेखांकित करता है। यह मानव के समीकरण की आरंभिक अवस्था है। इस काल में मानव शिकारी और संग्रह करते थे। जंगल में जानवरों का शिकार एवं जंगली उत्पादों का संग्रह मानव के जीवन उपार्जन का साधन था। मध्य प्रदेश की भीमबेटका की गुफा से प्राप्त आरंभिक चित्रों से मानव की आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों पर प्रकाश पड़ता है। क्योंकि इस काल में मानव शिकारी और खाद्य संग्रह के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपना स्थान बदलते रहते थे। इसलिए परिवार का आकार स्वाभाविक रूप से छोटा था एवं जनसंख्या सीमित थी।

बैंड समाज का आकार 20 से 50 लोगों के बीच का था। इस समाज में लोग संसाधनों का उपयोग सामी ग्रुप से करते थे। इस समाज में समानता की भावना प्रबल थी। तथा मुखिया तंत्र जैसी कोई पद्धति विकसित नहीं हुई थी। फिर पुरापाषाण काल में मानव ने अपने परिवेश में साहचर्य स्थापित किया इस काल में कला एवं धर्म के प्रति भी लोगों का रुझान देखा जा सकता है। बेलन घाटी के लौदा नाला नामक स्थान से देवी की मूर्ति मिली है। उसी प्रकार राजस्थान के  बागोर में भी देवी की एक मूर्ति प्राप्त हुई। फिर महाराष्ट्र में पाटन नामक स्थान से शुतुरमुर्ग का अंडा मिला। इस पर रेखा चित्र अंकित है इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेश में भीमबेटका से प्राप्त आरंभिक गुफा चित्र उच्च पुरापाषाण काल से ही संबंधित है।

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