भारतीय राजव्यवस्था लोकतंत्रात्मक है, जिसमें लोगों के मूल अधिकारों तथा स्वतंत्रता की गारंटी दी गयी है तथा राष्ट्र की एकता सुनिश्चित की गयी है। प्रस्तावना में उस आधारभूत दर्शन और राजनीतिक, धार्मिक व नैतिक मूल्यों का उल्लेख हैं जो हमारे संविधान के आधार है। सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य के वाद में न्यायमूर्ति मधोलकर ने कहा था कि उद्देशिका पर ‘गहन विचार विमर्श’ की छाप है तथा उद्देशिका ‘संविधान की विशेषताओं का निचोड़’ है। गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह ने भी विचार व्यक्त किया कि ‘संविधान की उद्देशिका उन सिद्धांतों का निचोड़ है जिनके आधार पर सरकार को कार्य करना है’ वह ‘संविधान की मूल आत्मा है, शाश्वत है, अपरिवर्तनीय है।’ भले ही प्रस्तावना को संविधान का अभिन्न अंग माना जाता है (केशवानंद भारतीय बनाम केरल राज्य), फिर भी यह भी अपनी जगह सत्य है कि यह न तो किसी शक्ति का स्त्रोत है और न ही उसको किसी प्रकार सीमित करता है।
प्रस्तावना का महत्त्व
प्रस्तावना को न्यायालय में प्रवर्तित नहीं किया जा सकता किंतु लिखित संविधान की उद्देशिका में वे उद्देश्य लेखबद्ध किये जाते हैं, जिनकी स्थापना और संप्रवर्तन के लिए संविधान की रचना होती है। प्रस्तावना का महत्त्व यह भी है कि जब कोई अनुच्छेद अस्पष्ट हो और उसका ठीक-ठीक अर्थ जानने में कठिनाई हो तो स्पष्टीकरण के लिए प्रस्तावना की भाषा का सहारा लिया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, प्रस्तावना में संविधान निर्माताओं के आशय को समझने के लिए प्रस्तावना का सहारा लिया जा सकता है। प्रस्तावना संविधान की आत्मा है। सभी संवैधानिक और संसदीय अधिनियमों की इसके प्रकाश में व्याख्या की जा सकती है। प्रस्तावना का महत्त्व इस कारण भी स्पष्ट होता है कि यह संविधान के स्वरूप, कार्यप्रणाली तथा राजनीतिक व्यवस्था को प्रकट करने के साथ-साथ भावी भारत के स्वरूप को भी चित्रित करती है। प्रस्तावना में ‘हम क्या करेंगे, हमारा ध्येय क्या है और किस दिशा में जा रहे हैं’ का उल्लेख है। वस्तुत: संविधान की प्रस्तावना से दो प्रयोजन स्पष्ट होते हैं-प्रथम, प्रस्तावना यह स्पष्ट करती है कि संविधान के प्राधिकार के स्त्रोत क्या हैं और द्वितीय, संविधान किन उद्देश्यों को संवर्धित या प्राप्त करना चाहता है।
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