मौलिक अधिकारों की आवश्यकता क्यों होती है

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मौलिक अधिकारों की आवश्यकता क्यों होती है : किसी भी व्यक्ति के चहुमुखी विकास (भौतिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक) के लिए मौलिक अधिकारों की आवश्यकता होती है । मौलिक अधिकार, वे अधिकार हैं जो किसी व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता एवं अभिवृद्वि के लिए अनिवार्य है और जिन्हें राज्य के विरूद्ध न्यायपालिका का संरक्षण प्राप्त होता है। इनके अभाव में लोकतंत्र मात्र कल्पना होगा । किसी भी लोकतंत्र की असफलता इस बात पर निर्भर करती है कि देश की जनता को आमतौर पर कौन-सी नागरिक स्वतंत्रताएं प्राप्त है। वस्तुतः नागरिक स्वातंत्र्य ही मूल अधिकार है ।

प्रत्येक लोकतंत्र राज्य की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अपने नागरिक को विकास के अधिक से अधिक अवसर प्रदान करता है । सभी लोकतंत्र इसी प्रयोजन के लिए मौलिक अधिकार की एक सूची अपने संविधान द्वारा प्रत्याभूत करके उन्हें कार्यपालिका तथा विधान मण्डल के अतिक्रमण से सुरक्षित रखते है। मौलिक अधिकारों का अर्थ हैं परिसीमित प्रशासन और परिसीमित प्रशासन का उदेश्य है कार्यपालिका और विधानमण्डल की स्वतंत्रता अथवा सम्मिलित रूप में तानाशाही की प्रवृति पर प्रतिबंध लगाना।

मौलिक अधिकार लोकतंत्र के आधार-स्तम्भ है। मूल अधिकारों से उन परिस्थितियों अथवा सुविधाओं का बोध होता है जो व्यक्ति की अंतर्निहित शक्तियों को विकसित करने और उसे अपने व्यक्तित्त्व में पूर्णता प्रदान करने के लिए सामान्य रूप से अपरिहार्य मानी जाती है।

मूल अधिकारों की मांग (Demand for Fundamental Rights)

मौलिक अधिकार का सर्वप्रथम विकास ब्रिटेन में हुआ था। ब्रिटिश सम्राट द्वारा 1215 ई. में हस्तांतरित अधिकार मूल अधिकार सम्बन्धी प्रथम लिखित दस्तावेज है। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) के संविधान से लिए गए है.  भारत में मौलिक अधिकारों की घोषणा के लिए सर्वप्रथम माँग तिलक द्वारा स्वराज बिल के तहत 1895 में की गई। 1925 में एनी बेसेंट द्वारा प्रस्तुत कॉमनवेल्थ आफ इंडिया बिल में यह मांग की गई कि अंग्रेज़ों के समान भारतीयों को भी नागरिक तथा समता का अधिकार प्रदान किया जाए। 1927 में अग्रेजों के मद्रास अधिवेशन में एक संकल्प पारित कर यह निर्धारित किया गया कि भारत के भावी संविधान का आधार मूल अधिकारों की घोषणा होनी चाहिए। 1928 में मोतीलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट (नेहरू रिपोर्ट) में सभी मौलिक अधिकारों की माँग की गई। मार्च 1931 में कांग्रेस के करांची अधिवेशन तथा सितम्बर में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में गाँधी जी द्वारा मूल अधिकारों की माँग को दोहराया गया। लेकिन उसके बावजूद 1934 में संयुक्त संसदीय समिति ने इस माँग को अस्वीकार कर दिया। फलस्वरूप, 1935 के भारत सरकार अधिनियम में मूल अधिकारों को शामिल नही किया गया । 1945 में भारत के संविधान के संबंध में सर तेज बहादुर सप्र द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में भारतीय संविधान में मूल अधिकारों को शामिल करने की सिफारिश की गई। संविधान सभा के गठन की योजना प्रस्तुत करने वाले कैविनेट मिशन द्वारा यह सुझाव दिया गया कि मूल अधिकारों तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सिफारिश करने के लिये एक समिति का गठन किया जाना चाहिए। फलतः संविधान सभा ने वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में परामर्श समिति का गठन किया। परामर्श समिति द्वारा 27 फरवरी, 1947 को जे.वी. कृपलानी की अध्यक्षता में मौलिक अधिकारों से संबंधित एक उपसमिति गठित की गई। इसे मौलिक अधिकार समिति भी कहा जाता है।

        मौलिक अधिकार समिति सदस्य थेमीनू मसानी, के.टी. शाह, कृष्णास्वामी अपयर, के.एम. मुंशी, के.एम. पाणिक्कर, राजकुमारी अमृतकौर, हरनाम सिंह, मौलाना आजाद, अम्बेडकर, हंसा मेहता तथा सरदार पटेल। उल्लेखनीय है कि परामर्श समिति तथा उपसमिति (मौलिक अधिकार समिति) की सिफारिशों के आधार पर ही संविधान में मूल अधिकारों को शामिल किया गया।

मूल अधिकारों का वर्गीकरण

भारतीय संविधान के भाग 3 अनुच्छेद 12-35 में मूल अधिकारों को सात समूहों में वर्गीकृत किया गया था लेकिन 44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा भारतीय संविधान में से सम्पत्ति के मूल अधिकार (अनुच्छेद 31) को मूल अधिकारों के समूह में से 20 जून, 1979 से निकाल दिया गया। इसी अधिनियम द्वारा संविधान के भाग-12 में एक नया अध्याय 4 जोड़कर सम्पत्ति के अधिकार के अनुच्छेद 300 (क) के अंतर्गत रखा गया है जिसमें कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति से विधि के प्राधिकार से ही वंचित किया जाएगा,अन्यथा नहीं। इस प्रकार सम्पत्ति का अधिकार मूल अधिकार न होकर देश का सामान्य कानून बन गया है। उल्लेखनीय है कि 44वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 19 (1)(च) के तहत ‘सम्पत्ति की स्वतंत्रता का लोप कर दिया गया है और अब अनुच्छेद 19 के अंतर्गत नागरिकों को 6 स्वतंत्रताएं (मूल अधिकारों) ही प्राप्त हैं। वर्तमान में भारतीय संविधान में 6 मूल अधिकार हैं:

  1. समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
  2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
  4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-24)
  5. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)

 

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