मध्य पाषाण काल

मध्य पाषाण काल में लोगों के जीवन पद्धति तथा तकनीकी में व्यापक परिवर्तन देखे जा सकते थे। यह काल होलो सीन युग से संबंधित था । अतः इस काल में जलवायु शुष्क होने लगा था मध्य पाषाण काल को पुरापाषाण काल तथा नवपाषाण काल के बीच का एक संक्रमण की अवस्था मानी जानी चाहिए । इस काल में भी मानव शिकारी एवं खाद्य संग्राहक ही बना रहा, परंतु शिकार एवं खाद्य सामग्री की तकनीकी में परिवर्तन आया । इसके अतिरिक्त उन्होंने पहली बार स्थाई जीवन तथा पशुपालन की दिशा में कदम बढ़ाया यद्यपि इनकी वास्तविक सुरत आगे के काल में हुई थी। अगर तकनीकी विकास की दृष्टि से देखा जाए तो इस काल में संघ एवं फल उपकरणों का प्रयोग होता रहा फिर भी इस काल के महत्वपूर्ण उपकरण थे ।

सूक्ष्म पाषाण उपकरण इन उपकरणों का औसत आकार 5 सेंटीमीटर तथा तथा इन्हें लकड़ी तथा हड्डी के साथ जोड़कर निर्मित किया जाता था इसके कारण उपकरणों की गुणवत्ता बड़ी फिर और कमान का विकास संभव हुआ तीर और कमान से अब न केवल छोटे बसों को वरण पक्षियों का भी शिकार संभव था इसके अतिरिक्त जो कि अब किसी भी जानवर को दूर से शिकार किया जा सकता था अतः पहले की तुलना में शिकारी भी अधिक सुरक्षित हुए अगर हम मध्य पाषाण काल से संबंधित उपकरणों पर दृष्टिपात करते हैं तो इन उपकरणों के विकास के तीन चरण निर्धारित किए जा सकते हैं ।

  •  अज्यामिति उपकरण
  •  ज्यामितिक उपकरण
  •  मृदभांड सहित ज्यामितिक उपकरण

 मृदभांड का प्रयोग का आरंभिक साक्षी सर्वप्रथम मध्य पाषाण काल में ही मिला था ।

मध्य पाषाण काल के स्थल भी संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप से प्राप्त हुए हैं। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के बेलन घाटी में सराय नाहर राय और महादाहा, गुजरात में लांघनाज, महाराष्ट्र में  पाटन आदि।  जैसा कि हम जानते हैं कि इस काल में पशु पक्षियों के शिकार के साथ-साथ मछली मारने की कला भी विकसित हुई थी। इसके कारण खाद्यान्न की उपलब्धता  में भी बढ़ोतरी हुई तथा इसके परिणाम स्वरूप जनसंख्या वृद्धि को प्रोत्साहन मिला। पहली बार मानव ने इस काल में स्थाई जीवन जीने का प्रयास किया। उदाहरण के लिए बेलन घाटी में सराय नाहर राय और महादाहा से स्तंभ गर्त का साक्ष्य मिलता है। शेर मध्य प्रदेश में आजमगढ़ तथा राजस्थान के बागोर से पशुपालन का साक्षी मिलता है। राजस्थान में सांभर झील के पास विश्व के आरंभिक वृक्षारोपण का प्रमाण मिलता है। यह लगभग 7000 से 6000 ईसा पूर्व से संबंधित है।

मध्य पाषाण काल की विशेषताएं

मध्य पाषाण काल की विशेषता है इसमें मानव की गतिशीलता में बढ़ोतरी हुई थी ।  शिकार एवं खाद्य सामग्री के संग्रहण में बेहतर दक्षता प्राप्त करने के लिए बच्चों को निवास स्थल पर छोड़ना ही आवश्यक हो गया। इस प्रकार परिवार की आरंभिक अवधारणा विकसित होने लगी क्योंकि समुदाय में वृद्ध सदस्य बच्चों के पार्षद के लिए निवास स्थल पर रहने लगे।  जबकि  अधिक सक्षम सदस्य  जीवन उपार्जन के लिए बाहर निकलते थे।मध्य  पाषाण काल से जुड़ी हुई कलाकृति भीमबेटका के अतिरिक्त मिर्जापुर, आजमगढ़ तथा प्रतापगढ़ से प्राप्त हुई।  यहां से प्राप्त चित्रों में जीवन की विविध गतिविधियां व्यक्ति हुई हैं।  उसी प्रकार बागोर नामक स्थल में मृत देवी की उपासना का साथ मिला है। यह तथ्य दर्शाता है कि जब धर्म के प्रति लोगों का रुझान विकसित होने लगा था।  मध्य पाषाण काल में समाधान की पद्धति का भी विकास हुआ।  सबके साथ आवश्यकता की वस्तुएं दफनाए जाने का यह सिद्ध करता है कि संभवत लोगों ने पुनर्जन्म की कल्पना विकसित कर ली थी।  फिर अगर हम इन दफनाए गए मानव शव पर दृष्टि डालते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि आज के मापदंडों  पर लोगों के जीवन प्रत्याशा बहुत कम थी। यह 15 से 45 के बीच थी।

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