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अगर हम भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न नवपाषाणकालिक स्थलों पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि इन स्थलों के विकास के काल में अंतर है। उत्तर पश्चिम के स्थल सबसे प्राचीन हैं। उसी प्रकार विभिन्न नवपाषाणकालिक स्थलों के विकास के स्तर में भी अंतर है। उत्तर-पश्चिम के स्थल विकास की दृष्टि से बेहतर स्थिति में थे। यही वजह है कि इन्होंने उत्तर पश्चिम में एक उन्नत सभ्यता का आधार निर्मित कर दिया। अगर हम हड़प्पा सभ्यता और ताम्रपाषाण काल के संबंधों पर दृष्टिपात करते हैं तो फिर ये संबंध अत्यधिक जटिल प्रतीत होते हैं। तकनीकी दृष्टि से ताँबा काँसे की पूर्व अवस्था को दर्शाता है। इसलिए ताम्रपाषाण काल को हड़प्पा सभ्यता से प्राचीन माना जाना चाहिए किंतु कालक्रम की दृष्टि से कुछ ताम्रपाषाणकालिक स्थल हड़प्पा सभ्यता से पहले आये, कुछ ताम्रपाषाणकालिक स्थल हड़प्पा सभ्यता के समकालीन थे तथा अनेक ताम्रपाषाणकालिक स्थल एवं संस्कृतियां हड़प्पा सभ्यता के पश्चात् अस्तित्व में आयी। अगर हम हड़प्पा सभ्यता से पूर्व के ताम्रपाषाणकालिक स्थलों पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि ये स्थल कोई और नहीं अपितु आरम्भिक या प्राक् हड़प्पाई स्थल ही है। जैसाकि हम जानते हैं कि लगभग 3500 ईसा पूर्व या 3200 ईसा पूर्व में भारतीय उपमहाद्वीप में तांबे का प्रचलन
आरम्भ हो गया था। तांबे का प्रयोग करने वाले आरम्भिक स्थल प्राक् हड़प्पाई अथवा आरम्भिक हड़प्पाई स्थल थे। फिर हड़प्पा काल तक लोगों ने वहां कांसे का निर्माण करना सीख लिया था। उसी प्रकार जब हड़प्पा सभ्यता नगरीय चरण में विद्यमान थी तो उसके कुछ समकालीन ताम्रपाषाणकालिक स्थलों में गणेश्वर, अहार आदि स्थलों की चर्चा की जा सकती है। इनके अतिरिक्त कश्मीर के ताम्रपाषाणकालिक स्थल एवं गंगा-यमुना दोआब के स्थल ये सभी उसी समय अस्तित्व में आ चुके थे जब हड़प्पा सभ्यता विद्यमान रही थी।
फिर जब हड़प्पा सभ्यता का पतन हुआ तो सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में विशेषकर हड़प्पा सभ्यता के आसपास के क्षेत्रों में ताम्रपाषाणकालिक स्थलों का व्यापाक विस्तार देखा गया। लगभग 1900 ईसा पूर्व -1000 ईसा पूर्व के काल में भारतीय उपमहाद्वीप में ताम्रपाषाणकालिक संस्कृतियां यथा- कैयथा संस्कृति, मालवा संस्कृति, जोरबे संस्कृति आदि फलती फूलती रही तत्पश्चात् लौह युग का आरम्भ हुआ।
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