भारतीय संविधान की विशेषताएं pdf

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भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं : यदि हम विश्व के विभिन्न संविधान पर नजर डाले तो हमें इन संविधानओ की अलग-अलग विशेषताएं देखने को मिलती हैं। यह व्यापक रूप में हमें इन संविधान ओं को उस देश द्वारा अपनाई गई राजनीतिक व्यवस्थाओं के आधार पर वर्गीकृत कर सकते हैं। निम्न चार आधारों पर आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था को वर्गीकृत किया जाता हैं।

  1. पहले तो लोकतांत्रिक और तानाशाही सरकार हैं। जिनका वर्गीकरण लोगों की सहभागिता और व्यवस्था को प्रदान की गई स्वायत्तता के आधार पर किया जाता है।
  2. दूसरा विधायिका और कार्यपालिका के लोकतांत्रिक व्यवस्था में आपसी संबंधों पर आधार पर इस आधार पर हम उनका संसदीय और अध्यक्षात्मक राजनीतिक व्यवस्था के रूप में अंतर करते हैं।
  3. तीसरी राजनीतिक व्यवस्था को शक्तियों के भौगोलिक वर्गीकरण या वितरण के आधार पर संघात्मक और एकात्मक के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं।

 अंत में हम राजनीतिक व्यवस्थाओं को आर्थिक ढांचे के आधार पर पूंजीवादी और समाजवादी व्यवस्था के रूप में वर्गीकृत करते हैं।

इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार का वर्गीकरण लिखित और अलिखित संविधान के रूप में भी किया जाता है। अधिकांश ने राजनीतिक व्यवस्था में संविधान लिखित रूप में है केवल ब्रिटेन में संविधान अलिखित है। इंग्लैंड के संविधान के बारे में एक विवाद रहा है, कि कुछ विचारकों का मानना है कि वास्तव में इंग्लैंड में कोई संविधान नहीं है। जबकि कुछ अन्य विचारों को का मानना है, कि विश्व का सबसे पुराना संविधान इंग्लैंड का संविधान है। यह पर्यवेक्षण एक ही दस्तावेज की अलग-अलग भाषाओं का परिणाम है। जिसको एक विशेष समय पर लिखा और लागू किया गया। ऐसा संविधान किसी परंपरा अथवा इस उद्देश्य बनाई गई ,सभा अथवा किसी सम्राट या किसी तानाशाह द्वारा जारी किया जा सकता है।

इंग्लैंड में ऐसा संविधान है। जिसे कभी लागू नहीं किया गया नहीं लिखा गया। यह सैकड़ों वर्षो में हुए राजनीतिक संस्थाओं के क्रमिक विकास का परिणाम है, और परंपराओं के विकास पर आधारित है। जिसको या तो नई परंपराओं से अथवा संप्रभु संसद के कानूनों द्वारा सुधारा जा सकता है।

भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं
भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं
विशालतम लिखित संविधान

भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इस संविधान को हमारी संविधान सभा ने निश्चित अवधि में एकत्रित करके उसे लिखित शुरू प्रदान किया है।। भारत के संविधान में 398 अनुच्छेद तथा 12  भाग है।। जबकि अमेरिका के संविधान में  केवल 7 अनुच्छेद हैं। और ऑस्ट्रेलिया के संविधान में 128 अनुच्छेद हैं।

इंग्लैंड के संविधान के विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका कनाडा फ्रांस और भारत के संविधान लिखित है। यद्यपि यह एक दूसरे से किसी न किसी आधार पर अलग हैं। भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित और विस्तृत संविधान है। इसमें 395 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां हैं। भारतीय संविधान निर्माताओं का प्रशासन और सरकार की सभी समस्याओं का समाधान प्रधान करने का प्रयास रहा है। अन्य देशों में परंपरा का विषय रहा। आज अमेरिका के संविधान में केवल 7 अनुच्छेद है। ऑस्ट्रेलिया के संविधान में 128 अनुच्छेद है, और कनाडा के संविधान में 147 अनुच्छेद है। ऐसी विस्तृत दस्तावेज को तैयार करने में भारतीय संविधान के संस्थापकों ने 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन का समय लिया।

कभी-कभी यह पूछा जाता है कि भारतीय संविधान निर्माताओं ने इतना विस्तृत संवैधानिक दस्तावेज बनाने क्यों आवश्यक समझा और सर आइवर ने गोल्ड रूल की अवहेलना की जिसमें कहा गया है। कि ऐसी कोई चीज से मिलने की जाए, जिस को सुरक्षित ढंग से छोड़ा जा सकता है। किसी संघ के लिए अनिवार्य है, कि इसका संविधान लिखित होना चाहिए। ताकि जब जरूरत हो तब केंद्र और राज्य सरकारें इसका प्रयोग कर सकें। इसके अनुसार संविधान सभा ने एक लिखित संविधान तैयार किया जिसमें 395 अनुच्छेद 12 अनुसूचियां शामिल है। अतः यह विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है जिसको पूरा करने में लगभग 3 वर्ष का समय लग गया।

संविधान की सर्वोच्चता

वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत भारत का संविधान सर्वोच्च है। केंद्र व राज्यों के विधानपालिका एवं कार्यपालिका संविधान का उल्लंघन नहीं कर सकती।

किसी भी संघीय ढांचे में संविधान केंद्र तथा राज्य इकाइयों के लिए बराबर रूप से सर्वोच्च होना चाहिए संविधान देश का सर्वोच्च कानून है। तथा केंद्र अथवा राज्य द्वारा पारित कानून संविधान सम्मत होने चाहिए। इसके अनुसार भारत का संविधान भी सर्वोच्च है और न केवल केंद्र न ही राज्य के हाथ की कठपुतलियां हैं। यदि किसी कारणवश राज्य का कोई अंग संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है। तो न्यायपालिका संविधान की गरिमा को हर हाल में बनाए रखने के लिए के लिए प्रतिबद्ध है।

 कठोर संविधान 

भारत का संविधान कठोर है।, परंतु अमेरिका के संविधान के प्रति कठोर नहीं है।। संविधान के कुछ प्रावधानों को संसद दो बटे तीन बहुमत से ही संशोधित कर सकती है। तथा कुछ विशेष प्रावधानों  के संशोधन पर एक बटे दो राज्य विधान मंडलों द्वारा  सहमति भी अनिवार्य है।

 भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं लोकप्रिय संप्रभुता

 भारत एक संपूर्ण संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य है। संविधान की प्रस्तावना के प्रारंभिक शब्द जनता  प्रशासन पर बल देते हैं। जनता ही संविधान का स्रोत है। लोकप्रिय संप्रभुता का प्रमुख अभिप्राय है। कि सभी सरकारी संस्थाओं की अंतिम सप्ताह जनता की इच्छा से उत्पन्न होती है। जो संविधान में अभिव्यक्त भी की गई है। दूसरे शब्दों में समय-समय पर होने वाले लोकप्रिय चुनाव द्वारा इस सप्ताह का नवीनीकरण होता रहता है। जहां इंग्लैंड तथा  संयुक्त राज्य अमेरिका में मताधिकार  लोगों को धीरे-धीरे प्रदान किया गया और लोगों को यह प्राप्त करने में एक शताब्दी से अधिक समय लगा वहीं भारत में यह एक ही साथ एक ही समय में सभी को प्रदान कर दिया गया। परिणाम स्वरूप गरीबी से ग्रस्त कॉम पिछड़े एवं अशिक्षित भारतीयों को स्वतंत्रता की महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में मत देने का अधिकार प्राप्त हो गया।

भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं

 1950 के बाद से स्वतंत्र भारत में 14 आम चुनाव हो चुके हैं। और इन चुनाव में गरीबी कामा व्यापक शिक्षा तथा  अल्पसंख्यक जैसी बाधाओं के बावजूद जनता ने सामान्य अपने विवेक का प्रयोग करते हुए अपनी पसंद के प्रतिनिधियों का निर्वाचन किया है। और एक लोकतांत्रिक कौन उत्तरदाई सरकार के गठन में अपनी सर्वोच्च सत्ता की पुष्टि की है। इसलिए यह कहा जा सकता है। कि उन विद्यमान परिस्थितियों में भारत में लोकतंत्र को अपनाना एक अनूठा प्रयोग था।  और राष्ट्रीय नेतृत्व की ओर से यह एक साहस पूर्ण एवं विश्वसनीय निर्णय की अभिव्यक्ति थी।

संसदात्मक सरकार

भारत में लोकतांत्रिक संसदात्मक सरकार अपनाई गई जो ब्रिटेन के प्रारूप का घर आधारित है। सामान्यतया विश्वास किया जाता है। कि अंग्रेजी शासन के दौरान भारतीय नेताओं ने इस प्रणाली के अंतर्गत कुछ अनुभव प्राप्त किया था।  इसलिए संसदात्मक प्रारूप को अपनाया गया लेकिन इस को अपनाने के अन्य दो मिथुन कारण भी थे। जैसा कि डॉक्टर अंबेडकर ने बताया प्रथम कारण यह था।  कि लोकतांत्रिक कार्यपालिका को दो शब्द अवश्य पूरी करनी चाहिए स्थायित्व एवं उत्तरदायित्व अमेरिका एवं स्विस प्रणालियां अधिक स्थायित्व को सुनिश्चित करते हैं। लेकिन उत्तरदायित्व को नहीं गैर संसदात्मक प्रणाली के अंतर्गत कार्यपालिका के उत्तरदायित्व का निर्वाह शर्त के रूप में होता है। और इसको चुनाव के समय ही निर्वाचक को द्वारा किया जाता है। लेकिन इसके विपरीत संसदात्मक प्रणाली के अंतर्गत यह अवलोकन एवं दैनिक दोनों में होता है। संसद के सदस्यों द्वारा प्रश्न प्रस्ताव एवं अविश्वास प्रस्ताव द्वारा यह अवलोकन निरंतर किया जाता है। मियादी अवलोकन निर्वाचक ओ द्वारा चुनाव के माध्यम से किया जाता है। संविधान सभा ने स्थायित्व की अपेक्षा उत्तरदायित्व को अधिक महत्व दिया

          संसदात्मक प्रणाली को अपनाने का दूसरा महत्व कारण था।  भारतीय समाज की बहुलवादी प्रकृति इस प्रणाली के अंतर्गत निर्णय करने की प्रक्रिया में बहुत से समूह एवं हितों को स्थान देने के दृष्टिकोण भी उचित माना गया था।  इस कारणों के साथ-साथ औपनिवेशिक शासन के दौरान नेतृत्व का प्रशिक्षण भी इस प्रणाली के अंतर्गत हुआ था।  तथा  उनकी अनुकूलता भी इसके प्रति बन गई थी हालांकि सरकार की संसदात्मक प्रणाली में मुख्यतः ब्रिटेन की परंपराओं की लिखित रूप प्रदान किया गया था।  फिर भी प्रणाली ब्रिटेन से दो प्रकार से विनती ब्रिटेन में संसद सर्वोच्च है। ब्रिटेन की संसद द्वारा पारित किए गए किसी भी कानून की वैधता को कोई भी अदालत चुनौती नहीं दे सकती किंतु भारत में संसद सर्वोच्च नौकर संविधान सर्वोच्च इसलिए भारतीय न्यायालय को संसद द्वारा पारित कानूनों की संवैधानिक ता पर निर्णय करने की शक्ति निहित है। दूसरी ब्रिटेन में राज्य अध्यक्ष पत्रक होता है। किंतु भारत में संघीय प्रसंग में राज्य अध्यक्ष का पेपर किस तरीके से चुनाव होता है।

मूलभूत अधिकार

संविधान के जिन  उद्देश्यों का उल्लेख प्रस्तावना में किया गया है। उनमें महत्वपूर्ण उद्देश है।, “सभी नागरिकों के लिए न्याय सामाजिक आर्थिक राजनीतिक, विचार,अभिव्यक्ति, विश्वास, श्रद्धा एवं पूजा के स्वतंत्रता, विस्तार एवं अवसर की समानता” इनकी स्पष्ट अभिव्यक्ति  अध्याय तीसरे व चौथे। में किया गया है। इन्हें मौलिक अधिकार एवं नीति निर्देशक सिद्धांत कहा गया है।

 मौलिक अधिकारों के अध्ययन में संविधान शिकार करता है। कि प्रत्येक नागरिक एक मानव के रूप में कुछ अधिकारियों को उपयोग करने का अधिकारी है। इस प्रकार के अधिकारों का उपयोग किसी बहु संख्या किया अल्पसंख्यक की इच्छा पर निर्भर नहीं करता इन अधिकारों में भाषण एवं संगठन की स्वतंत्रता, कानून के समक्ष समानता एवं कानूनों की सम्मान सुरक्षा, विश्वास की स्वतंत्रता और सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक स्वतंत्रता शामिल है। संवैधानिक समाधान के अधिकार की व्यवस्था भी संविधान में है। जिसके अनुसार कोई भी पीड़ित व्यक्ति अपने मूल अधिकारों की बहाली के लिए उच्च न्यायालय के पास जा सकता है।

 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के अनुसार किसी भी उच्च न्यायालय में तथा  अनुच्छेद 226 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में व्यक्ति अपनी याचिका दायर कर सकता है।

 इन अधिकारों का महत्व इस तथ्य में निहित है। कि इन स्वतंत्रता ओं का अस्तित्व बहु संख्या की इच्छा पर निर्भर नहीं करता। इस अस्पर्शता की समाप्ति अनुच्छेद 17, शोषण के विरुद्ध अधिकार अनुच्छेद 324 तथा  समानता और न्याय के अधिकार अनुच्छेद 14, 15 और 23 विशेष रूप से सामाजिक न्याय को प्राप्त करने से संबंधित है।

लेकिन इसी के साथ-साथ इस पर भी बल दिया गया है। कि संविधान द्वारा सुरक्षित किए गए मूलभूत अधिकार है। सीमित नहीं है। दूसरे शब्दों में यद्यपि मूलभूत अधिकार स्वयं में मौलिक हैं। लेकिन वे राष्ट्रीय सुरक्षा एवं सामूहिक लोक हित से ऊपर नहीं है। राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई है। जिससे किसी मूलभूत अधिकार को सीमित किया जा सकता है। संविधान में यह व्यवस्था भी की गई है, कि जो अपने मौलिक अधिकारों का उपयोग कर रहे हैं। वे अपने उत्तरदायित्व को भी पूरा करें संसद के पास यह अधिकार भी है। कि मूलभूत अधिकारों को सीमित या रद्द करने के लिए संविधान में संशोधन कर सकते हैं। मूलभूत अधिकारों का उपयोग को सीमित करने के लिए संविधान में बहुत से संशोधन किए गए हैं।

ऐसा माना जाता है। कि विकासशील देशों में लोकतंत्र जनसाधारण के लिए तभी अर्थ पूर्ण हो सकता है। जब इसके साथ सामाजिक परिवर्तन भी हो पूर्ण विराम इसलिए नवीन भारत के उदित होते लोकतंत्र के मूलभूत आधार के रूप में आर्थिक कार्यक्रम की योजना तैयार की गई है। और इनमें से कई को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के रूप में शामिल किया गया है। सामाजिक हित में धन को एकाधिकार तथा  संचयन को सीमित करना बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा जैसे कार्यक्रमों को नीति निर्देशक सिद्धांतों में शामिल किया गया कुछ निश्चित मौलिक अधिकारों का अनुसरण करने के लिए नीति निर्देशक सिद्धांतों को राज्य तथा  इसकी प्रत्येक संस्था के लिए मार्ग निर्देशक माना गया है।

नीति निर्देशक सिद्धांत 

          नीति निर्देशक सिद्धांतों को मूलभूत अधिकारों की भांति कानून के रूप में लागू नहीं किया जा सकता लेकिन इसके बावजूद भी देश का शासन संचालित करने के लिए उन्हें आधारभूत घोषित किया गया है। 25 वें संविधान संशोधन के बाद उन्हें मौलिक अधिकार की अपेक्षा प्रधानता दी गई है।

इस प्रकार संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित सभी लक्ष्यों को प्राप्त करने की व्यवस्था की गई है। आइंस्टीन का कहना है। कि भारतीय संविधान एक सामाजिक दस्तावेज है। इसको अधिकतर अनुच्छेद या तो सामाजिक क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक परिस्थितियों की स्थापना करती है। या इस क्रांति की गति को और अधिक तीव्र करने का प्रयास करती है। सामाजिक क्रांति के प्रति कटिबद्ध मूल अधिकार एवं नीति निर्देशक सिद्धांतों में निहित है। यह संविधान के विवेक हैं। लेकिन समाज की उदार प्रकृति  लोकतंत्र के कुछ विरोधाभास एवं आधुनिक राज्य पर पड़ने वाले दबाव के कारण सामाजिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने में निश्चित तौर पर कुछ स्पष्ट सीमाएं हैं। यही कारण है। कि वास्तविक व्यवहार में भारत में परिवर्तन की प्रक्रिया में जहां एक और पुनर्निर्माण तथा  सामाजिक गतिशीलता की एक शानदार प्रक्रिया को जन्म दिया है। वहीं इससे सामाजिक व्यवस्था में असंतुलन भी उत्पन्न हुआ है।

भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं धर्मनिरपेक्षता

भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं में शामिल है धर्मनिरपेक्षता. आधुनिक युग में धर्मनिरपेक्षता एक अत्यंत महत्वपूर्ण अवधारणा है। भारतीय लोकतंत्र में इसका महत्व और अधिक है। क्योंकि सामाजिक विविधता एवं सांस्कृतिक विविधताओं के कारण भारत को स्वतंत्रता के समय विशिष्ट समस्याओं का सामना करना पड़ा। यह एक स्वस्थ, उदार, समतावादी, अनेकता वादी, लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अनुकूल न थी। इसमें कोई संदेह नहीं है। कि विकास केवल ऐसे वातावरण में ही हो सकता है। जब भी सामाजिक स्थिति सोहर दूर पूर्ण होने की विनाशकारी इस प्रसंग में सामाजिक सौहार्द तथा  सामाजिक शांति के लिए धर्मनिरपेक्ष समाज एवं धर्मनिरपेक्ष राज्य को अनिवार्य माना गया।

लेकिन संविधान निर्माण के समय विशिष्ट भारतीय परिस्थितियों एवं  स्थितियों के कारण उस समय धर्मनिरपेक्ष के सिद्धांत के विषय में कुछ संदिग्धता भी व्याप्त थी इसी कारण इसे संविधान की प्रस्तावना में  उद्धरण नहीं किया गया। संविधान सभा में कई सदस्यों ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी राज्य घोषित करने की मांग की। परंतु इस मांग को यह तर्क देते हुए मानने से इंकार कर दिया कि धर्मनिरपेक्ष संविधान में अंतर्निहित है। इसी प्रकार समाजवाद तत्कालिक लक्ष्य नहीं था।  बाद में 1976 में 42 संविधान संशोधन द्वारा धर्मनिरपेक्षता तथा  समाजवाद दोनों को प्रस्तावना में शामिल कर लिया गया।

 भारत में धर्मनिरपेक्षता के विचार की उत्पत्ति मूलभूत अधिकारों से होती है। और इसका अभिप्राय है। कि धार्मिक पूजा की स्वतंत्रता, धार्मिक सहिष्णुता एवं  सांप्रदायिक सौहार्द। इसमें अंतर्निहित है। कि विद्वान तथा  नवीन धर्मों को समृद्ध होने की स्वतंत्रता, धार्मिक गतिविधियों के प्रति राज्य का तटस्त बने रहना। जैसा कि नेहरू ने बल देते हुए कहा कि स्थाई तथा  सौहार्द को बनाए रखने के लिए धर्मनिरपेक्षता एक व्यवहारिक एवं आवश्यक दृष्टिकोण है। लेकिन व्यवहार में राजनीतिज्ञों ने  सत्ता के स्वार्थ पूर्ण उपयोग हेतु धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग किया है। और चुनाव के लिए लामबंदी हेतु धर्म का इस्तेमाल किया है। इस प्रकार की गतिविधियों के कारण धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवाद एवं समाज विरोधी तत्वों का सामूहिक रूप से उद्भव हुआ है। इसे सांप्रदायिकता बढ़ रही है। तथा  इसने उदार धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को चुनौती दी है। जिसके कारण आर्थिक विकास गंभीर रूप से प्रभावित हो रहा है।

भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं संघवाद

भारत की पृष्ठभूमि बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक एवं बहुजातियों होने के कारण भारतीय निर्माताओं ने प्रस्तावना के अंतर्गत व्यक्तिगत गरिमा सुनिश्चित करते हुए भातृत्व एवं राष्ट्र की अखंडता एवं एकता प्रोत्साहित करने का लक्ष्य रखा इन सामान्य विकारों को न केवल समानता स्वतंत्रता नागरिक अधिकारों एवं अल्पसंख्यक अधिकारों की मूलभूत धाराओं द्वारा कार्यशील बनाया गया बल्कि सहयोगी एवं अर्थ सांगा संघवाद के माध्यम से भी इनकी सक्रिय भूमिका सुनिश्चित की गई उद्देश्य प्रस्ताव में संविधान सभा ने भारत में एक ऐसे संघवाद के निर्माण की घोषणा की जिसके अंतर्गत राज्य इकाइयों के पास अवशिष्ट शक्तियां तथा  सरकार संचालित करने के अधिकार के साथ-साथ स्वायत्तताहोगी 

परंतु भारत का विभाजन होने के कारण भविष्य में भारत  की एकता के सवाल से नेतृत्व के एक भाग में कुछ संदेह उत्पन्न हो गए थे। नेतृत्व का एक भाग पहले से ही एक शक्तिशाली केंद्र के पक्ष में था।  परिणाम स्वरूप संविधान निर्माताओं ने एक ऐसी संघीय व्यवस्था की स्थापना की जिसका झुकाव एक शक्तिशाली केंद्र की तरफ था।  संविधान का प्रथम अनुच्छेद घोषित करता है। कि भारत ‘ राज्यों का संघ’ होगा। ‘ राज्यों के  संघ’ शब्द के महत्व की व्याख्या करते हुए डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा कि इसके अंतर्गत दो चीजें अंतर्निहित है।: प्रथम, भारतीय संघ इकाई के मध्य समझौते का परिणाम नहीं है।; दूसरा किसी भी इकाई को संघ से स्वतंत्र होने का अधिकार प्राप्त नहीं है।.

भारत में शक्तियों का विभाजन तीन स्तरों पर है।,  वित्तीय, प्रशासनिक और विधायिका। लेकिन केंद्र के पास न केवल अधिक एवं महत्वपूर्ण सकती हैं। बल्कि वह राज्यों के शक्ति क्षेत्रों में भी हद से सेव कर सकता है। अवशिष्ट शक्तियां केंद्र के पास है। ना कि राज्यों के पास वास्तव में भारत को 1935 के अधिनियम से संघीय ढांचा उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था।  1935 का अनुच्छेद असंतुष्ट इकाइयों की बढ़ती मांग तथा  उनके परंपराओं एवं निष्ठाओं के अनुरूप उनकी जीवन प्रणाली के तौर-तरीकों को उचित स्थान प्रदान करने के लिए पर्याप्त लचीला नहीं था।

 केंद्रीकरण की प्रवृत्ति के बावजूद राज्यों को यह संतुष्टि अवश्य थी कि उनके पास विषयों की एक सुनिश्चित सूची थी जिस पर कानून बनाने की शक्ति पूर्णता राज्य सरकारों के पास थी लेकिन व्यवहार में दल व्यवस्था की प्रकृति, योजनाबद्ध विकास की प्रक्रिया तथा  केंद्र में राजनीतिक नेतृत्व की शैली में शक्तियों के केंद्रीकरण की लगातार बढ़ती प्रक्रिया एवं राज्य स्तर की राजनीति में केंद्र के हस्तक्षेप को काफी बढ़ाया। इसी के साथ-साथ केंद्रीय करण की प्रक्रिया के फल स्वरुप क्षेत्रीय तथा  सांस्कृतिक समूह की चेतना एवं दावों का विकास हो रहा है। इस प्रकार केंद्र राज्य के संबंधों में तनाव एवं तकरार उत्पन्न हुआ केंद्र विमुख तथा  केंद्र अभिमुख प्रवृत्तियों का विरोध कर अनेकता में समन्वय दोबारा एकता लाने के लिए संविधान द्वारा उपलब्ध संघीय मूल्यों को पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है।

स्वतंत्र न्यायपालिका

 संविधान निर्माता भविष्य क्षेत्र में न्याय के विचार के प्रति चिंतित थे। यह क्षेत्र के व्यक्तिगत अधिकार, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा,  प्रादेशिक क्षेत्रों की शक्तियां, पीड़ित तथा  शोषित आदि का उत्थान। इनके लिए मूलभूत अधिकारों नीति निर्देशक सिद्धांतों चुनाव संघवाद कानून का शासन आदि की व्यवस्था की गई लेकिन संविधान निर्माताओं के सम्मुख औपनिवेशिक शासन के द्वारा सर्वाधिकार वादी एवं निरंकुश राज्य के कार्य करने का अनुभव था।  वे जानते थे। कि व्यक्ति समूह तथा  राज्यों के अधिकार की सुरक्षा के लिए उचित तंत्र के बगैर उनके आशीर्वाद मात्र बने रहने की संभावना प्रबल थी इसलिए आवश्यकता की समूह सहित व्यक्ति व्यक्तिगत रूप में अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त वैद्य संस्थान प्रदान की जाए इसी के लिए संविधान में स्वतंत्र न्यायपालिका की अवधारणा को शामिल किया गया यहां यह भी उद्धत किया जा सकता है। कि भारत में संयुक्त राज्य अमेरिका की भांति और ब्रिटेन की अपेक्षा न्यायपालिका को अधिक शक्ति प्रदान की गई है। इस संदर्भ में न्यायपालिका को चार कार्य  दिए गए हैं। 

  1. मौलिक अधिकारों की रक्षा एवं गारंटी
  2.  संघीय संतुलन बनाए रखना
  3.  कार्यकारी तथा  विधायिका पर नियंत्रण रखना एवं कानून के शासन को लागू करना और
  4.  संविधान को परिभाषित करना।

 न्यायपालिका को कार्यपालिका तथा  विधायिका के नियंत्रण से स्वतंत्र रखा गया। इसके पास व्यापक शक्ति एवं उत्तरदायित्व है। और संवैधानिक ढांचे के अंतर्गत इस को व्यापक सम्मान प्राप्त है। उच्चतम न्यायालय का निर्णय देश के लिए सर्वोपरि है विधि होता है । उच्चतम न्यायालय राज्यों के बीच अथवा संघ तथा राज्यों के बीच अधिकार क्षेत्र तथा शक्ति के वितरण के संबंध में उत्पन्न विवाद के विवाचक का कार्य करता है ।

लचीलापन

 न तो सामाजिक न्याय की अवधारणा और ना ही संविधान अपने आप में कोई स्थाई चीज है। सामाजिक न्याय की अवधारणा को सामाजिक वास्तविकताओं के आधार पर समय समय पर पुनः निर्मित करने की आवश्यकता होती है। सामाजिक वास्तविकताओं विद्यमान ऐसा मानता ओं के विषय में हमें जागरूक रखती हैं। तथा  परिवर्तन द्वारा हमें सामाजिक राजनीतिक संस्थाओं और अधिक तर्कसंगत बना पाते हैं। संविधान भी एक जीवंत दस्तावेज होता है। जिसे समाज की परिवर्तित होती जरूरतों के अनुरूप अपने गति को बनाए रखना होता है। इसलिए यह संभव है। कि किसी योग तथा  विशिष्ट संदर्भ में तैयार इस तथ्य के प्रति भली-भांति सजग थे। कि जिस विकासशील समाज के लिए भी राजनीतिक संस्थाओं की व्यवस्था उपलब्ध कराने जा रहे हैं। उनमें गतिशीलता तथा  तीव्र विकास के लक्षण विद्यमान हैं। सदैव परिवर्तित होती परिस्थितियों के अनुरूप संविधान को डालना उनके सफलतापूर्वक कार्य करने के लिए महत्वपूर्ण था।  क्योंकि संविधान को राष्ट्र के विकास की परिवर्तन होती धारा के साथ साथ कार्य करना था।

 संविधान में औपचारिक संशोधन की प्रक्रिया समाज में परिवर्तित होती परिस्थितियों के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली माध्यम है। लगभग सभी संविधान में किसी न किसी प्रकार से संशोधन किए जाते हैं। यदि यह प्रक्रिया तुलनात्मक दृष्टि से सरल है। तो इसको जटिल संविधान की तुलना में लचीला संविधान कहा जाता है। क्योंकि जटिल संविधान के अंतर्गत संशोधनों की प्रक्रिया कुछ मुश्किल होती है।

 संविधान की धारा 368 में नहीं संविधान के औपचारिक संशोधन की प्रक्रिया जटिलता तथा  जिले का मिश्रण है। संशोधन हेतु संविधान की  धाराओं को तीन सामान्य  शीर्षक में विभाजित किया गया है।

  1. पहला शीर्षक के अंतर्गत विधारा यहां आती हैं। जिनको संसद के  बहुसंख्यक सदस्यों द्वारा परिवर्तित किया जा सकता है। जैसे साधारण कानून को परिवर्तित करने के लिए
  2. दूसरे शीर्षक के अंतर्गत धारा जाते हैं। जिनमें संशोधन एक विशेष बहुमत द्वारा किया जा सकता है। और
  3. तीसरे शीर्षक के अंतर्गत धारा जाती हैं। जिनमें अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान की गई है। और उनमें संशोधन तभी किया जा सकता है। यदि उन्हें संसद के दोनों सदनों द्वारा दो तिहाई बहुमत से पारित करें तथा  कम से कम आधे राज्यों की विधानसभा द्वारा मत से पारित किया गया हो

एकात्मता का प्रभाव

 शक्तियों का बंटवारा केंद्र के पक्ष में किया गया है। संविधान संशोधन प्रक्रिया में केंद्र को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है। इसके अतिरिक्त एक संविधान, एक नागरिक तथा  एकल  न्यायपालिका व्यवस्था भी एकात्मक व्यवस्था को अधिक प्रभावी बनाती है।। राष्ट्रपति की आपात शक्तियां संघात्मक व्यवस्था को  स्थगित कर सकती हैं।  राज्यपाल, चुनाव आयोग, वित्त आयोग, अंतर राज्य परिषद एवं अखिल भारतीय सेवाओं भारत किस अंग में एकात्मता को अधिक प्रभावशाली बनाते हैं।

भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं है। इसका संघात्मक ढांचा होना, जिस का झुकाव एकात्मक की ओर है। अन्य शब्दों में गए तो साधारण व्यवस्था संघात्मक है परंतु संविधान संघात्मक होते हुए भी एक रूप में परिवर्तित होने की क्षमता देता है। संघवाद एक आधुनिक अवधारणा है। आधुनिक समय में इसके सिद्धांत और व्यवहारिक था। अमेरिका से पुरानी नहीं है जो 1787 में अस्तित्व में आया। ऐसी व्यवस्था केंद्र सरकार की सरकार है। या राज्य सरकार के रूप में परिभाषित क्षेत्र में कार्य करते हैं। एक दूसरे से तालमेल व सहयोग बनाती है। दूसरे शब्दों में संगी राजनीति सामान्य राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने तथा विविधता में एकता लाने की एक संवैधानिक विधि प्रदान करती है। आज की भारतीय संघ व्यवस्था में ऐसी सभी विशेषताएं जो संगी राजनीति के लिए आवश्यक है।

संसदीय सर्वोच्चता न्यायिक सर्वोच्चता  में समन्वय

 इंग्लैंड में  संसद में सर्वोच्चता पाई जाती है। जबकि अमेरिकी संघ में न्यायिक सर्वोच्च था। की स्थापना की गई है। परंतु हमारे संविधान निर्माताओं ने संसदीय सर्वोच्चता व न्यायिक सर्वोच्चता के मध्य का मार्ग अपनाया है। भारतीय संसद सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक पुनरावलोकन के अधिकार को सीमित कर सकती है। लेकिन ऐसा संविधान संशोधन सर्वोच्च न्यायालय के  द्वारा परीक्षण किया जा सकता है।

संप्रभुता संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य

 भारत एक पूर्ण संप्रभुता संपन्न राज्य है। भारत अपनी आंतरिक व बाहरी नीतियों का निर्धारण भी निर्णय करने में पूर्ण स्वतंत्र यदि भारत ब्रिटिश राज्य कुल का सदस्य है। या अंतरराष्ट्रीय संधि समझौता या कानूनों को  स्वीकार करता है। तो उसके द्वारा उसके आधार सहमति है।

 भारत एक  लोकतंत्रात्मक राज्य भारत की राज्य सत्ता पर भारत की जनता का सर्वोच्च, संपूर्ण व अंतिम अधिकार है। भारत एक गणराज्य है। भारत का सर्वोच्च पद( राष्ट्रपति) निर्वाचित पद है। जिस पर विधि के अनुसार प्रत्येक नागरिक को पद आसीन होने का अधिकार है।

भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं समाजवादी राज्य

 भारतीय संविधान में समाजवादी तत्व आरंभ से ही सम्मिलित थे लेकिन इससे अधिक महत्व प्रदान करने के लिए समाजवादी शब्द संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संविधान संशोधन द्वारा 1976 में सम्मिलित किया गया। समाजवाद का अर्थ है अत्यंत व्यापक है फिर भी समाजवाद का मूल अभिप्राय आर्थिक शोषण को समाप्त करना है। भारतीय समाजवाद यूरोपियन समाजवाद अथवा चीनी समाजवाद व्यवस्था के अनुरूप नहीं है।

 भारतीय संदर्भ में समाजवाद का अभिप्राय राज्यों के उस समाजवादी ढांचे से संबंधित नहीं है जिसमें उत्पादन के सभी साधनों का राष्ट्रीयकरण किया जाता है। इंदिरा गांधी ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा था कि केवल राष्ट्रीयकरण करना यह हमारा समाजवाद नहीं है।

 समाजवाद का  भारतीय संदर्भ में लोकतांत्रिक विचारधारा पर आधारित समाजवाद है अर्थात भारत के विभिन्न वर्गों में समानता समाप्त करके आर्थिक एवं सामाजिक शोषण को समाप्त करना है। इसके लिए संपत्ति के मौलिक अधिकार को समाप्त करना, भूमि सुधार कानून को न्यायालय की परिधि से बाहर रखना तथा भूमि की अधिकतम सीमा निर्धारित करना आदि उपाय किए गए। 

दूसरी और कमजोर एवं पिछड़े वर्गों की स्थिति सुधारने के लिए अनेक योजनाएं बनाई गई।  आर्थिक विषमता को दूर कर सभी को समान अवसर प्रदान करना ही भारतीय समाजवाद का सार है।  इसे भी लोकतांत्रिक उपायों से प्राप्त करना है। 

 42 वें संविधान संशोधन द्वारा भारत को समाजवादी राज्य घोषित किया गया परंतु भारत की समाजवाद की अवधारणा अपने सांस्कृतिक,  सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप होगी लेकिन भारत में कहीं भी समाजवादी व्यवस्था नहीं है। लोक कल्याणकारी राज्य के सिद्धांत को आदर्श मानकर भारत चलता है। भारत की प्रस्तावना व राज्य के नीति निर्देशक तत्व इस बात की ओर संकेत करते हैं। कि राज्य ऐसे सभी कार्य करेगा जो लोग कल्याण में वृद्धि करते हैं। शासन का मुख्य उद्देश नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक तथा  नैतिक विकास के लिए सुविधाएं प्रदान करना है।

संयुक्त निर्वाचन पद्धति

 स्वतंत्रता पूर्व ब्रिटिश सरकार ने भारत में सांप्रदायिकता के आधार पर पृथक निर्वाचन पद्धति अपनाई थी परंतु स्वतंत्रता के पश्चात भारत के संविधान निर्माताओं ने संयुक्त निर्वाचन पद्धति अपनाई और संप्रदायिक मताधिकार को समाप्त कर दिया था।

 पिछड़ी तथा  अनुसूचित जातियों की विशेष सुरक्षा

 संविधान में पिछड़ी हुई तथा  अनुसूचित जातियों को सवर्ण जातियों के समान सामाजिक व राजनीतिक स्तर तक लाने के लिए संसद,  विधान मंडलों तथा  सार्वजनिक क्षेत्रों में स्थान सुरक्षित कर दिए गए हैं। उनकी शिक्षा आदि का विशेष ध्यान रखा गया है।

 एकल व्यवस्था

 संविधान निर्माताओं ने संघीय व्यवस्था को स्वीकार  करके भी राज्य  की राष्ट्रीय एकता के लिए केंद्र व राज्यों के लिए एक संविधान  तथा  एकल नागरिकता और एकल न्यायपालिका को स्वीकार किया है। जबकि अमेरिका संविधान में  दोहरा संविधान व दोहरी नागरिकता तथा  दोहरी न्यायपालिका अवस्था को अपनाया गया है।

 हिंदी राष्ट्रभाषा

 भारत में भावात्मक एकता स्थापित करने के लिए भारत सरकार ने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया है। राष्ट्रीय भाषा हिंदी की लिपि देवनागरी की रखी गई है। 1965 में  सहभाषा विधेयक स्वीकृत करके हिंदी भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा को भी सह भाषा के रूप में केंद्रीय कार्यालयों में प्रयोग की स्वतंत्रता होगी इसके अतिरिक्त राज्य सरकारों को प्रादेशिक भाषाओं के प्रयोग की स्वतंत्रता भी प्रदान की गई है।

 विश्व शांति का पोषक

 वसुधैव कुटुंबकम के आदर्श का संवर्धन करने के लिए संविधान निर्माताओं ने नीति निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत भारत सरकार को विश्व शांति विश्व बंधुत्व के प्रति जागरूक रहने का निर्देश दिया गया है।

 निष्कर्ष

 भारतीय संविधान निर्माता का उद्देश भारत के लिए किसी नवीन संविधान का विस्तार करना नहीं था।  बल्कि भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप एवं अनुकूल एक आदर्श संविधान निर्माण करना था।  अतः हमारे संविधान निर्माताओं ने विश्व के प्रसिद्ध संविधान ओं की उपयोगी व्यवस्थाओं को संविधान का अंग बनाया इसलिए  कुछ आलोचक भारतीय संविधान को “उधार का थैला” भी कहते हैं। 

भारतीय संविधान के वृहद होने का कारण है?

भारतीय संविधान के विरुद्ध होने का कारण इसमें संघ और राज्य सरकारों का संविधान का एक होना है। भारतीय संविधान में सिर्फ संघ का संविधान न होकर, संघ तथा राज्य सरकार दोनों का एक ही संविधान होने के कारण भारतीय संविधान बहुत बड़ा संविधान है। राज्यों के लिए भारत में अलग से संविधान बनाने की अनुमति नहीं है। इसी कारण भारतीय संविधान में ही राज्यों को उपलब्ध सारे उपवन 2 का विस्तार से वर्णन किया गया है। किसी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने के लिए उपलब्ध सभी बंधुओं का विस्तार से वर्णन भारतीय संविधान में किया गया है। केंद्र राज्य संबंधों के बारे में विस्तार से उल्लेखित होने के कारण भारतीय संविधान का आकार बड़ा है। भारतीय संविधान में 395 तथा 12 अनुसूचियां हैं। जो भारतीय संविधान की रीड की हड्डी मानी जाती है।

भारतीय संविधान का अभिभावक कौन है ?

भारतीय संविधान का अभिभावक सर्वोच्च न्यायालय को माना गया है। किसी भी कानून की वैधता संविधान के अनुरूप है, या नहीं इसका निर्णय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा किया जाता है। इसलिए ही भारतीय संविधान का अभिभावक सर्वोच्च न्यायालय को माना गया है।

भारतीय संविधान में कितनी सूचियाँ (List) हैं ?

Ans: भारतीय संविधान में तीन अनुसूचियां है | संघ सूची | राज्य सूची | समवर्ती सूची

लिखित संविधान की अवधारणा ने सर्वप्रथम कहाँ जन्म लिया ?

Ans: लिखित संविधान की अवधारणा ने फ्रांस में जन्म लिया है

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