संविधान की प्रस्तावना: भारतीय संविधान जिन आदर्शों व दार्शनिक तत्वों से अभिप्रेरित हुआ है उनका दार्शनिक विवेचन इसकी प्रस्तावना में किया गया है। यह संविधान की आत्मा है. सार है। वास्तव में यह उसकी आधारशिला व प्रेरणा है। संविधान के विभिन्न प्रावधान प्रस्तावना में निहित भावनाओं को स्पष्ट करते हैं। हालांकि प्रस्तावना कानून की दृष्टि से संविधान का अंग नहीं है किन्तु संविधान की कानूनी गुत्थियों को सुलझाने तथा शासन के अंगों का मार्गदर्शन करने के लिए यह मार्ग प्रशस्त करती है।
एक न्यायसंगत सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के उपरोक्त उद्देश्यों को स्पष्ट तौर पर संविधान को प्रस्तावना में दर्शाया गया है।
हम भारत के लोग, भारत को एक संम्प्रभु, समाजवादी, धर्मनिपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतन्त्र में विधिवत् तौर पर गठित करने का संकल्प करते हैं और इसके सभी नागरिकों के लिए एक सामाजिक आर्थिक एवं राजनैतिक स्वतंत्रता, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, निष्ठा तथा पूजा की समानता, स्तर तथा अवसर की सुनिश्चित करना और सभी नागरिकों के बीच प्रोत्साहित करना। भ्रातृत्व तथा व्यक्तिगत गरिमा को सुनिश्चित करना और राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता को बनाये रखना।”
प्रस्तावना के इन शब्दों से स्पष्ट है कि संविधान निर्माताओं ने स्वतन्त्र भारत में नागरिकों के लिये न्याय, स्वतन्त्रता, समानता तथा भ्रातत्व प्राप्त करने के लक्ष्यों को सुनिश्चित किया। यह तीनों अवधारणात्मक लक्ष्य हमारी संवैधानिक व्यवस्था के मौलिक आधार हैं। यह इसकी मूल्य व्यवस्था को जीवित रखते हैं, एवम् इसकी संस्थाओं और माध्यमों को सजीव करते हैं। यह न केवल राज्यों के प्रयासों एवं कार्यों को प्रेरित करते हैं अपितु समाज एवं व्यक्तिगत नागरिकों को भी प्रयासरत रहने को प्रेरणा प्रदान करते हैं।
प्रस्तावना में प्रस्तुत यह लक्ष्य एक दृष्टिकोण से दिखावटी एवं आडम्बरपूर्ण प्रतीत होते हैं लेकिन इस कारण से इनकी वास्तविकता एवं महत्व कम नहीं हो जाता। यही वे लक्ष्य हैं जो संवैधानिक ज्ञान एवं विश्लेषण के कई मार्गों की व्याख्या करते यही लक्ष्य हमारी तत्कालिक आवश्यकताओं तथा भविष्य की आवधारणाओं के संदर्भो में हमारे संविधान के संदेशों तथा आज्ञाओं के लिये हमारी सहायता करते हैं। सम्पूर्ण रुप से ये लक्ष्य न केवल हमारे संविधान को एक प्रहरी बनाते हैं अपितु यह अपनी पूर्णता में स्वतन्त्रता के परमार्थ हेतु एक सर्वत्र एवं सर्वव्यापी मार्गदर्शक भी है।
प्रस्तावना की प्रमुख विशेषताएं
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की व्याख्या करते हुए डा. जे. आर. सिवाच कहते है कि प्रस्तावना के चार भाग हैं
- सत्ता का स्त्रोत
- शासन का प्रकार
- शासन प्रणाली के लक्ष्य,
- स्वीकृति एवं क्रियान्वन की तिथि।
प्रस्तावना की विशेषताओं का विवेचन विस्तृत रुप में निम्नलिखित किया गया है: भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है- 26 जनवरी, 1950 को लागू होने वाले मूल संविधान में 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा’ समाजवादी और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को और जोड़कर प्रस्तावना को अधिक स्पष्ट बनाने का प्रयास किया गया है। इन महत्वपूर्ण शब्दों की व्याख्या नीचे की गई हैं:
(क) प्रभुत्वसम्पन्न देश-यह घोषित करके कि भारत सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न देश है संविधान निर्माताओं ने भारत की अधिराज्य की स्थिति समाप्त करके इसे अमरीका व फ्रांस आदि के समान प्रभुत्वसम्पन्न देश बना दिया। इस प्रकार संविधान लागू होने के पश्चात से भारत अपनी आन्तरिक व विदेशी नीति-निर्धारित करने के लिए सक्षम है। इस सम्बन्ध में यह आलोचना की जाती रही है कि राष्ट्रमंडल की सदस्यता के कारण भारत इंग्लैंड की रानी के प्रति विशेष निष्ठा रखता है तथा इससे इसका प्रभुत्वसम्पन्न स्वरुप नष्ट होता है किन्तु राष्ट्रमंडल प्रभुत्वसम्पन्न देशों का ऐच्छिक संगठन है और भारत इसका सदस्य अपनी इच्छा से बना है वह जब चाहे इसकी सदस्यता को छोड़ सकता है। अतः यह सदस्यता भारत के सार्वभौम स्वरुप को नष्ट नही करती। दूसरे राष्ट्रमंडल के सदस्य ब्रिटिश सम्राट को राष्ट्रमंडल का प्रतीक मानते हैं।
(ख) समाजवादी देश-42 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 से पूर्व संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ शब्द नहीं था बल्कि समाजवादी स्वरुप की कल्पना को मूर्त रुप देने का कार्य प्रस्तावना के ‘सामाजिक व आर्थिक न्याय’ जैसे शब्द करते थे। इसका अर्थ है कि भारत में सामाजिक व आर्थिक न्याय की स्थापना की जाएगी। नीति निदेशक सिद्धांतों में लक्ष्य को निर्धारित किया गया है। अनुच्छेद 39 तो सामाजिक व आर्थिक स्वतन्त्राओं का घोषणा-पत्र जैसा है। यद्यपि समाजवाद शब्द को प्रस्तावना में जोड़कर जो कुछ निहित था उसे मात्र स्पष्ट व निश्चित बनाया गया है किन्तु इससे अनेक प्रकार को कठिनाइयां उत्पन्न हो सकती हैं। वास्तव में समाजवाद की न तो कोई निश्चित परिभाषा है और न कोई निश्चित स्वरुप। एक ओर यह शुद्ध जनतन्त्रात्मक रुप में कल्याणकारी राज्य के स्वरुप को भी प्रकट करता है। संविधान निर्माताओं ने इसी कारण ‘आर्थिक की प्राप्ति के कार्य को आने वाली सन्तति पर छोड़ दिया था ताकि समय व परिस्थिति के अनुसार वह’ आर्थिक न्याय ‘को स्थापित कर सके। डा. अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि हमने देश में राजनीतिक जनतन्त्र’ स्थापित किया है और हम चाहते हैं कि ‘आर्थिक जनतन्त्र’ भी स्थापित किया जाए। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या हमारे सामने आर्थिक जनतन्त्र स्थापित करने का कोई निश्चित आदर्श है? संसार में अनेक मार्गों से आर्थिक जनतन्त्र स्थापित किया गया है। आने वाली सन्तति अपनी परिस्थिति के अनुसार आर्थिक जनतन्त्र स्थापित करे, उसके सामने विकल्प हो यह उचित है।
प्रस्तावना में समाजवाद शब्द के जुड़ जाने से यह भय उत्पन्न होने लगा है कि भविष्य में अधिनायकवादी शक्तियां देश के जनतांत्रिक स्वरुप को नष्ट न कर डालें। अभी तक हमारे देश में जिस समाजवाद को स्वीकार किया गया है उसे जनतान्त्रिक तरीकों से स्थापित किया जाना है। इस प्रकार यह समझना चाहिए कि भारत का मार्ग अब जनतान्त्रिक समाजवाद निश्चित हो गया है।
ग) पंथ निरपेक्ष– देश भारत एक पंथ निरपेक्ष राज्य है इसका अर्थ यह है कि राज्य किसी पंथ को राज्य-धर्म के रुप में स्वीकार नहीं करता। प्रस्तावना में कहा गया है कि भारतवासियों को विश्वास, धर्म व उपासना को स्वतन्त्रता प्राप्त होगी। अनुच्छेद 25 से 28 के अन्तर्गत संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतन्त्रता की गारण्टी दी गई है। वह किसी भी धर्म में विश्वास रख सकता है, उस पर आचरण कर सकता है और उसका प्रचार कर सकता है। राज्य उसके इस कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेगा। राज्य की दृष्टि में सब धर्म समान हैं
42 वां संविधान संशोधन (1976), जो जनवरी, 1977 में लागू हुआ, से पूर्व ‘पंथ निरपेक्ष’ शब्द प्रस्तावना में नही था बल्कि संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों के द्वारा उसे परोक्ष रुप में स्थापित किया गया था। वास्तव में भारत में प्राचीन काल से ही राज्य का पंथनिरपेक्ष स्वरुप स्थापित रहा है क्योंकि यह हिन्दू देश है और हिन्दू ‘सर्वपंथ समादर’ के सिद्धांतों में विश्वास रखता है। यही कारण है कि भारत में विश्व के विभिन्न भागों से आए विभिन्न विश्वासों के लोगों को अपने विश्वासों के साथ सम्मान सहित रहने का अवसर मिला।
घ) लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रस्तावना में राज्य के लोकतांत्रिक स्वरुप की कल्पना की गई है जिसमें जनता अपने शासकों को चुनती है। शासक तब तक अपने पद पर बने रह सकते है जब तक उनका जनता में विश्वास बना रहा है अन्यथा जनता शासन की बागडोर नए शासकों के हाथों में सौंप देती है। भारत में प्रतिनिधि जनतन्त्र स्थापित है जिसमें देश की वयस्क जनता प्रतिनिधियों का चुनाव करती है।
प्रस्तावना में जिस प्रकार ‘लोकतन्त्रात्मक’ शब्द का प्रयोग किया गया है उससे ‘राजनीतिक लोकतन्त्र’ की भावना के साथ-साथ ‘आर्थिक व सामाजिक लोकतन्त्र’ की कल्पना की भी अभिव्यक्ति होती है।
ड) एक गणराज्य– संसार में लोकतन्त्र के दो रुप हैं। पहला, वंशानुगत लोकतन्त्र और दूसरा, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य। वंशानुगत लोकतन्त्र में राज्य का मुखिया वंश परम्परागत राजा होता है। राजा की मृत्यु के पश्चात् उसकी सन्तान उसका स्थान ले लेती है; इंग्लैंड, जापान व नेपाल आदि देशों में इसी प्रकार का जनतन्त्र स्थापित है। दूसरे प्रकार के लोकतन्त्र में राज्य का मुखिया ‘जनता द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से निश्चित अवधि के लिए चुना गया प्रधान, अध्यक्ष या राष्ट्रपति होता है। जिस राज्य में चुना हुआ अध्यक्ष होता है वह गणराज्य कहलाता है। भारत में गणराज्य स्थापित है क्योंकि यहां पांच वर्ष के लिए राष्ट्रपति का अप्रत्यक्ष रुप से निर्वाचन होता है।
अन्तिम सत्ता जनता में निहित है- संविधान की प्रस्तावना के शब्दों से स्पष्ट होता है कि भारतीय शासन की अन्तिम सत्ता जनता में ही निहित है, वही भारतीय संविधान का स्त्रोत है। प्रस्तावना के शब्द ” हम भारत के लोग इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित तथा आत्मर्पित करते हैं “स्पष्ट करते हैं कि यह संविधान भारत के लोगों ने ही बनाया है, तथा शासन की सम्पूर्ण शक्तियों का स्त्रोत भारत की जनता है। संविधान के अध्ययन से यह भी स्पष्ट होता है कि उसके किसी प्रावधान में यह इंगित नहीं किया गया है कि भारत की जनता ही सम्पूर्ण शक्तियों का मूल है। इस प्रकार यह प्रस्तावना प्रभुसत्ता के निवास की समस्या सत्ता द्वारा आरोपित न होकर भारत की प्रभुत्वसम्पन्न जनता ने ही इसका निर्माण किया है और इसे अंगीकृत, अधिनियमित व आत्मर्पित किया है।
अमरीका के संविधान का निर्माण वहां के राज्यों ने किया और वे ही वहां के संविधान की सर्वोपरि शक्ति रखते हैं। इसके विपरीत भारतीय संविधान की विशेषता यह है कि संविधान सभा ने भारत की जनता की ओर से इसका निर्माण किया है। अतः यहां सम्पूर्ण शक्तियां जनता में ही निहित हैं। डा. अम्बेडकर ने कहा है कि” प्रस्तावना से यह स्पष्ट हो जाता है कि संविधान का आधार जनता है और इसमें निहित प्राधिकार तथा प्रभुसत्ता सब कुछ जनता से ही प्राप्त हुई है। ”
प्रस्तावना में निहित पांच आदर्श
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में पांच आदर्शों को स्पष्ट किया गया है। ये आदर्श हैं- न्याय, स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व तथा राष्ट्रीय एकता व अखण्डता। इन पांचों आदर्शों को संक्षेप में निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया गया है:
(1) न्यायः सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक: प्रस्तावना में समस्त भारतीय नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय की प्राप्ति की बात कही गई है। न्याय से तात्पर्य उस व्यवस्था से है जिसमें व्यक्ति के अधिकारों को संरक्षण प्राप्त हो, समाज में उसकी गौरवपूर्ण स्थिति बनी रहे तथा समाज की मर्यादा भी स्थापित रहे। संविधान के अध्ययन से हमें स्पष्ट हो जाता है कि इसके विभिन्न उपबन्धों के मा यम से भारतीय जनता को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्र न्याय प्रदान किया गया है। राज्य के निर्देशक सिद्धांतों के नैतिक मूल्यों व मौलिक अधिकारों को कानूनी व्यवस्था के द्वारा यह न्याय, समस्त भारतीय नागरिकों को प्राप्त हुआ है।
(क) सामाजिक न्याय– सामाजिक न्याय से तात्पर्य उस स्थिति से है जिसमें व्यक्ति-व्यक्ति में भेदभाव न किया जाए, ऊंच-नीच की भावना न हो तथा समाज के सभी वर्गों के लोगों को अपने व्यक्तित्व के विकास के पूर्ण अवसर प्राप्त हों। भारतीय संविधान में दी गई व्यवस्थाएं इस दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण हैं। इनमें एक ओर धर्म, जाति, लिंग व जन्म-स्थान के आधार पर नागरिकों के बीच किसी प्रकार के भेदभाव करने की मनाही की गई है और दूसरी ओर पिछड़े वर्गों के तथा स्त्रियों व बच्चों के विकास की विशेष व्यवस्था करने के साथ-साथ सभी देशवासियों के लिए’ समान आचार संहिता ‘बनाने के लिए आदेश दिए हैं। इतना ही नहीं छुआछूत को अनुच्छेद 17 के माध्यम से गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया है। इसी प्रकार अनुच्छेद 23 में मानव व्यापार तथा बेगार आदि पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है और अनुच्छेद 24 में चौदह वर्ष से कम की आयु के बालकों को कारखानों आदि में नौकर न रखने की भी व्यवस्था की गई है।
(ख) आर्थिक न्याय– आर्थिक न्याय से तात्पर्य उस स्थिति से है जिसमें देश की सम्पत्ति का नागरिकों में यथासम्भव समान बंटवारा हो जिससे अधिकाधिक व्यक्तियों को उसका अधिकाधिक लाभ प्राप्त हो सके। इसके अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यतानुसार धनोपार्जन के साधन उपलब । हों किन्तु व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति का आर्थिक शोषण करने का अधिकार न हो। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में इस आकांक्षा की पूर्ति की व्यवस्था भी की गई है। अनुच्छेद 16 सार्वजनिक नौकरियों की प्राप्ति में नागरिकों के बीच किसी प्रकार का भेदभाव न करने की व्यवस्था करता है नीति । निर्देशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत अनुच्छेद 39 में सरकार को आदेश दिया है कि वह इस बात का प्रयास करे कि देश के सभी स्त्री-पुरुषों को रोजगार के पर्याप्त साधन प्राप्त हों, समाज के भौतिक साधनों का वितरण इस प्रकार हो कि उससे अधिकाधिक सामूहिक हित हो, स्त्री व पुरुषों को समान कार्य के लिए समान वेतन प्राप्त हों, नागरिक केवल मानवोचित परिस्थितयों में ही कार्य करे अर्थात् उसकी किसी आर्थिक आवश्यकता की मजबूरी. का लाभ न उठाया जा सके।
(ग) राजनीतिक न्याय– राजनीतिक न्याय से तात्पर्य यह है कि देश के नागरिकों को अपने देश को शासन व्यवस्था में भाग लेने अधिकार हो। इस दृष्टि से भारत में व्यस्क मताधिकार की व्यवस्था है। इससे शासन व्यवस्था में भाग लेने का सबको समान अधिकार प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार सार्वजनिक नौकरियों के लिए सबकों समान माना गया है । संविधान में कानून के सम्मुख समानता की व्यवस्था ने भी राजनीतिक न्याय स्थापित किया है ।
(2) स्वतन्त्रता: विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म तथा उपासना की: व्यक्ति के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए विभिन्न स्वतन्त्रताओं की प्राप्ति होना आवश्यक है। इसलिए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि भारतीय जनता को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता प्राप्त होगी जिससे भारतीय नागरिकों को व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के अवसर प्राप्त होंगे। मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत अनुच्छेद 19 में यह स्वतन्त्राएं भारतीय नागरिकों को प्राप्त हैं।
(3) समानता: प्रतिष्ठा व अवसर प्रदान कराने का उद्देश्य भी प्रस्तावना में अंकित है। सब प्रकार की विषमताओं को समाप्त करके प्रतिष्ठा व अवसर की समानता की प्राप्ति के लिए मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत अनुच्छेद 15, 16, 17 व 18 में इन उपबन्धों का उल्लेख किया गया है। सभी भारतीयों को कानून की दृष्टि में समान समझा गया है और उन सबको समान रुप से कानून का संरक्षण प्राप्त है। किया
(4)बन्धुता व्यक्ति की गरिमा को बढ़ाने वाली बंधुता की प्राप्ति के लिए वे प्रस्तावना में संकल्प व्यक्त किया गया है सर प्रथम फ्रांसीसी अधिकारों के घोषणा पत्र में और फिर संयुक्त राष्ट्र संघ में मानव अधिकारों में बंधुता पर बल दिया गया था मानव अधिकारों की घोषणा में कहा गया है कि सभी मनुष्य को एक दूसरे के साथ भातृ भावना से व्यवहार करना चाहिए भारत जैसे देश के लिए जिसमें लंबे परतंत्रता के काल के कारण धर्म जाति भाषा आदि के के कारन भेदभाव उत्पन हो गए है. बंधुत्व की भावना के विकास का विशेष महत्व है इसे समाज में विद्वान भेदभाव उत्पन्न हो गई है बंधु की भावना के विकास का विशेष महत्व है संविधान की प्रस्तावना में विश्व बंधुता की कल्पना की गई है अनुच्छेद 17 और 18 के द्वारा छुआछूत को समाप्त करके तथा उपलब्धि प्राप्त करके और अन्य समाज में स्थापित किया है
(5) राष्ट्र की एकता व अखण्डता– प्रस्तावना में राष्ट्र की एकता और अखाता को बनाए रखने के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। प्रस्तावना में कहा गया है भारतीय नागरिका में बना च धातभास की ऐसी भावना का विकास किया जाए जिससे उनमें सम्पूर्ण राष्ट्र की एकता के प्रति भक्ति उत्पन्न हो और भारत एक शक्तिशाली संगठित राष्ट्र के रुप में विकास कर सके।
42 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 ने अखण्डता शब्द जोड़कर विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश स्थापित किया है। भारत के संघात्मक स्वरुप में यह भावना निहित है क्योंकि अनुच्छेद। ।। भारत को राज्यों की यूनियन ‘कहा गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि राज्यों को संघ से स्वतन्त्र होने का अधिकार नहीं है। इसके साथ ही अनुच्छेद 19 राज्य को व्यक्ति की भाषण व अभिव्यक्ति की स्वतत्वता पर उचित प्रतिबन्ध लगाने का अधिकार देता है। इससे देश की अखण्डता की रक्षा की जा सकती है। वास्तव में देखा जाए तो प्रस्तावना में अखण्डता शब्द को जोड़ने से राज्या को इस सम्बध में कोई विशेष शक्ति प्राप्त नहीं होती और इसका प्रस्तावना में जोड़ा जाना कोई विशेष महत्व की बात नहीं है।
संविधान की प्रस्तावना में संशोधन
क्या संविधान की प्रस्तावना में संशोधन हो सकता है। यह प्रश्न सर्वप्रथम केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य के मामले में आया। इस मामले में सरकार का तर्क था कि उद्देशिका भी संविधान का एक भाग है, इसलिए संविधान के अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत उसमें संशोधन किया जा सकता है। अपीलार्थी का यह कहना था कि प्रस्तावना स्वयं संविधान की शक्ति पर मौलिक प्रतिबंध है। उसमें संविधान का मूलभूत ढांचा निहित है, जिसके संशोधित करके नष्ट नहीं किया जा सकता है क्योंकि उसमें से कुछ भी निकाल दिये जाने पर संविधानिक ढांचे का गिर जाना निश्चित है।
न्यायालय ने बहुमत से निर्णय दिया कि उद्देशिका संविधान का एक भाग है और उसके भाग में जो मूल ढांचे से सम्बन्धित है, अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संशोधन नहीं किया जा सकता है। उद्देशिका हमारे संविधान निर्माताओं का एक संकल्प है जिसके अनुरुप इन्होंने भावी विधि को ढालने का प्रयास किया है। ऐसा प्रतीत है कि स्वयं उद्देश्य का नये निराकृत या विलुप्त करने के विलग में हमारे संविध न निर्माताओं ने कुछ भी नहीं सोचा है।
42 वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में” समाजवादी पंथनिरपेक्ष “शब्दावली जोड़ी गयी है। इस प्रकार संसद ने उद्देशिका में संशोधन करने की शक्ति का प्रयोग किया है। इस संशोधन द्वारा कोशवानन्द भारती के मामले में दिये गये उच्चतम न्यायालय के निर्णय के प्रभाव को दूर करने का प्रयास किया गया है जिसमें यह निर्णय दिया गया था कि उद्देशिका के उस भाग में जो मूल ढांचे से सम्बन्धित है, संशोधन नहीं किया जा सकता है। किन्तु जब तक केशवानन्द भारती का निर्णय उलट नहीं दिया जाता है उद्देशिका में किये गये संशोधन को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि वह उद्देशिका में निहित किसी आधारभूत ढांचे को नष्ट करता है।
मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ के मामले के द्वारा संशोधन की शक्ति असीमित से सीमित कर दी गयी है। इस मामले में उद्देशिका में 42 वें संशोधन अधिनियम द्वारा किये गये संशोधन को वैध करार दिया गया क्योंकि इससे संविधान की आधारिक संरचना में परिवर्तन होता है।
प्रस्तावना का महत्व
प्रस्तावना का महत्व हम निम्न विभेदों के द्वारा भी प्रकाश में ला सकते हैं
किसी भी देश के संविधान की उददेशिका उस देश की शासन प्रणाली के स्वरूप का निरूपण करती है। संविधान की उददेशिका से विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के पारस्परिक संबंधों का निर्धारण होता है। संविधान की उददेशिका में संपूर्ण संविधान की आत्मा पलिबिम्बित होती है।
भारतीय संविधान में आगे चलकर जो कुछ भी लिखा है वह इसी उददेशिका की भावना को अक्षरशः प्रतिबिम्बित करता है। संविधान के 42 वें संशोधन द्वारा उददेशिका में समाजवादी तथा गंथनिरपेक्ष एवं अखण्डता शब्दों को जोड़कर संविधान को अधिक व्यापक बनाया गया। उद्देशिका में सम्मिलित शब्द तथा वाक्यांश अपने आप में भारत की राजनीतिक प्रणाली की व्याख्या करने वाले तत्व है। हम भारत के लोग में सम्पूर्ण समाज को एक साथ लेकर चलने की बात है तथा जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि से सम्बधित विभिन्नताओं के बीच भी एकता के दर्शन होते है। सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न होने का अर्थ यह है कि भारत के लोग कानूनों का निर्माण स्वयं करेंगे। समाजवादी समाज की स्थापना का लक्ष्य लेकर समाण के दबे कुचले, साधनहीन लोगों को बराबरी के स्तर पर लाने की बात कही गई है। पंथ निरपेक्ष राज्य का अर्थ है कि राज्य का अपना स्वयं का कोई धर्म नहीं होगा। लोकतांत्रिक शासन प्रणाली का अर्थ जनता का शासन, जनता के द्वारा, जनता के लिए ही होता हैं। गणराज्य का अर्थ यह है कि राष्ट्राध्यक्ष वंशानुगत न होकर जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्ति होगा।
समाज के सभी वर्गों को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक न्याय प्रदान करने, विचारों, अभिव्यक्ति विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रदान करने तथा राज्य द्वारा प्रदत्त प्रतिष्ठा एवं अवसरों की समता के लिए संविधान के मौलिक अधिकार अपने आप में परिपूर्ण हैं। इसे साथ-साथ राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता को निरूपित करने के लिए मौलिक कर्तव्यों तथा व्यक्ति की गरिमा को प्रदान करने के लिए राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को संविधान में शामिल किया गया है।
- हड़प्पा संस्कृति के किस स्थल से कब्रिस्तान के प्रमाण नहीं मिले हैं
- मोहनजोदड़ो की प्रसिद्ध पशुपति मुहर पर देवता किन पशुओं से घिरा है
- हड़प्पा संस्कृति से जुड़ा पुरास्थल सुत्कागेनडोर किस नदी के तट पर स्थित है
- किन हड़प्पाई स्थलों पर घोड़े के अवशेष प्राप्त हुए हैं
- निम्नलिखित में से किन हड़प्पाई स्थलों पर घोड़े के अवशेष प्राप्त हुए हैं
- भारत का सबसे बड़ा हड़प्पन पुरास्थल है
- सुत्कागेनडोर किस नदी के तट पर स्थित है
- हड़प्पा संस्कृति के लोग लाजवर्द किस देश से प्राप्त करते थे
- हड़प्पा संस्कृति में किस प्रकार की मुहरें सर्वाधिक लोकप्रिय थीं
- निम्नलिखित में से किसकी पूजा हड़प्पा संस्कृति में नहीं होती थी